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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १९३ जिनमें परोपकार गुण नहीं है, उसका जीना संसार में व्यर्थ और भारभूत है।" - "जिसके हृदय में उपकार वृत्ति रहती है, उसके हृदय में परमेश्वर निवास करता है, जिसके हृदय में उपकार वृत्ति रूप सिंहासन रक्खा है, उस पर परमेश्वर विराजमान होता है, अये पामर ! अपना उपकार रूप चिलकता हुआ हीरा परमेश्वर को भेंट कर।" "अपने पड़ोसी को तुम देखते हो, परन्तु उस पर तुम प्रेम नहीं रख सकते हों, तो परमेश्वर तो अदृश्य है, उस पर प्रेम किस प्रकार रख सकोगे।" - "परोपकार महागुण तुम्हारे साथ है और वह मानसिक, वाचिक तथा कायिक शक्ति का उत्पादक है, इसलिये सब गुण के पहले इसी गुण को प्राप्त करने का अभ्यास करना चाहिये।" : "उपकार महादान, उपकार देवपूजा और उपकार मन को नियम में रखने वाली उत्तम समाधि है। उपकारकर्ता देव, गुरु, मित्र और सब कोई को प्रिय लगता है, उपकार के बिना कोई शुभकार्य सफल नहीं होता।" "सूर्य, चन्द्र, मेघ, वृक्ष, नदी, गौ और सज्जन ये; सब इस युग में परोपकार के लिये पैदा हुए हैं। जो मनुष्य प्रेम से पूर्ण हो, परोपकार रूप यज्ञ करता है, उसको हिंसामय दूसरे यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" __ "स्वर्ग सुख से भी परोपकारी जीवन उत्तम है। जो मनुष्य कायम परोपकार कर सकता है, उसको स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं है। उपकार रहित मनुष्य की अपेक्षा तो पत्र पुष्प और छाया के द्वारा उपकार करने वाले वृक्ष ही श्रेष्ठ हैं।"
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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