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________________ १९१ श्री गुणानुरागकुलकम् किसी ने कहा - यह भी अनुचित है, क्योंकि निरंजन निराकार ईश्वर धर्म को कैसे उत्पन्न कर सकता है ? और कई एक धर्मों में ईश्वर को उत्पादक नहीं माना जाता, तो क्या उनमें धर्म नहीं है ? किसी ने कहा - धर्म का पिता सत्य है, कारण कि सत्य से धर्म उत्पन्न होता है। किसी ने कहा - मुझे तो यह उत्तर ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि सत्य धर्म का उत्पादक नहीं, किन्तु अङ्ग माना गया है। इस प्रकार पंडितों में कोलाहल मच गया, परन्तु सबका एक मत नहीं हुआ। तब राजा भोज ने अपने मुख्य पंडित कालिदास से कहा कि तुमको एक महीने की अवधि दी जाती है, इसमें इस प्रश्न का उत्तर अच्छी तरह निश्चय करके देना, नहीं तो ठीक नहीं होगा। सभा विसर्जन हुई, सब पंडित भारी चिंता में पड़े, परन्तु कालिदास को सबसे अधिक चिंता उत्पन्न हुई। विचार ही विचार में महीने में एक ही दिन अवशेष रह गया, कालिदास चिंतातुर हो अरण्य में चले गये, परन्तु संतोष कारक कोई समाधान का कारण नहीं मिला। तब अपनी इष्ट देवी काली का स्मरण कर आत्मघात करने के लिए समुद्यत हुआ, इतने में आकाशवाणी प्रगट हुई कि - ..."महाकवे ! मा प्रियस्व, त्वं रत्नमसि भारते । धर्मस्यैव पिता सत्यमुपकारोऽखिलप्रियः ॥१॥" हे महाकवि ! मत मर, तू इस भारतवर्ष में रत्न है, समस्त संसार को प्रिय धर्म का पिता निश्चय से उपकार है, अर्थात् तूं यह निश्चय से समझले कि धर्म का पिता उपकार ही है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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