SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० है और इसी से उसको सब कोई उत्तम और रहस्यपूर्ण गुण सिखाने में कसर नहीं करते हैं। क्रूर स्वभावी पुरुषों को कोई कुछ नहीं सिखलाता और न उससे कोई मित्रता ही रखता है ! इसलिये उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ने वालों को निरंतर शान्त स्वभाव ही रहना चाहिए क्योंकि शान्त स्वभाव वाले पुरुषों के पास हिंसक जन्तु भी वैरभाव छोड़कर विचरते हैं, अर्थात् गौ और सिंह आदि भी साथ ही सहवास करते हैं। ३३. परोपकृतिकर्मठ: - परोपकार में दृढ़ वीर्य (तत्पर) मनुष्य संसारगत मनुष्यों के नेत्र में अमृत के समान देख पड़ता है और परोपकार रहित पुरुष विष के समान जान पड़ता है। मनुष्य शरीर के अवयव दूसरे जीवों की तरह किसी काम में नहीं आते, इससे असार शरीर से परोपकारादि सार निकाल लेना ही प्रशस्य है, क्योंकि परोपकार धर्म का पिता है और धर्म से बढ़कर संसार में कोई सार पदार्थ नहीं है । प्रसंग प्राप्त यहाँ पर परोपकार की पुष्टि के लिये एक दृष्टांत लिखा जाता है, आशा है, कि पाठकों को वह अवश्य रुचिकर होगा। राजा भोज के दरबार में एक समय पंडितों की सभा हुई, उसमें साहित्य विद्या में प्रवीण और शास्त्र पारंगत अनेक नामी - नामी विद्वान उपस्थित हुए। उस सुरम्य सभा में राजा भोज ने पूछा कि विद्वानों ! कहो कि धर्म का पिता कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में पंडितों में नाना भाँति के विकल्प खड़े हो गये। किसी ने कहा कि धर्म नाम युधिष्ठिर का है, इससे उसका पिता राजा पाण्डु है । किसी ने कहा यह ठीक नहीं, धर्म अनादि है, इसलिये इसका पिता ईश्वर है। -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy