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________________ १८९ श्री गुणानुरागकुलकम् है, अतएव कारण में कार्योपचार करने से लज्जा संयम गिना जाता है। लज्जावान् पुरुषों की गिनती उत्तम पुरुषों की पंक्ति में होती है, किन्तु निर्लज्जों की नहीं होती। लज्जा गुण को धारण करने वाले अग्नि में प्रवेश करना, अरण्यवास करना और भिक्षा से जीना अच्छा समझते हैं, लेकिन प्रतिज्ञा भ्रष्ट होना ठीक नहीं समझते। अतएव लज्जावान् मनुष्य गुणवान् बनने के योग्य और धर्म के भी योग्य कहा गया है। ३१. सदयः - दुःखी जीवों को दुःख से बचाना अर्थात् सुखी करना, ऐसे गुण वाला पुरुष धर्म के योग्य होता है। दया के बिना कोई पुरुष धर्म के लायक नहीं हो सकता। दुःखित जीवों को देखकर जिसका अंतःकरण दयार्द्र नहीं होता, वह अंतःकरण नहीं है, किन्तु अंतःकरण (नाशकारक) है। धर्म के निमित्त पञ्चेन्द्रिय जीवों का वध करने वाला धर्म के लायक होना कठिन है, दयावान् पुरुष ही दान, पुण्य आदि सुकृतं कार्य भले प्रकार कर सकता है। सब दानों में दयादान बड़ा है, जो एक जीव की रक्षा करता है, वह भी .सदा के लिए निर्भय हो जाता है, तो सब जीवों की रक्षा करने वालों की तो बात ही क्या कहना है ? इसलिये मनुष्यों को निरंतर सदय रहना चाहिये, दयादान देने वाला भवान्तर में सुखी रहता है। सुमेरू पर्वत के बराबर सुवर्णदान से, सम्पूर्ण पृथिवी के दान से और कोटि गोदान से जितना फल होता है, उतना फल एक जीव की रक्षा करने से होता है, इससे गुणाभिलाषाओं को उचित है कि दयालु स्वभाव हो प्राणिमात्र को सुखी बनाने का प्रयत्न करें। . ३२. सौम्यः - शांत प्रकृति वाला पुरुष हर एक सद्गुण को सुगमता से प्राप्त करता है। इसी गुण से पुरुष सबक प्रिय लगता
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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