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________________ १८८ - श्री गुणानुरागकुलकम् असंभव है। जो गुण और दोषों आदि को नहीं पहचानते, उनका निस्तार इस संसार से होना असंभव है, अतएव विशेषज्ञ मनुष्य गृहस्थ धर्म और गुण ग्रहण करने योग्य है। ___२८. कृतज्ञ - किए हुए उपकारों को जानने वाला पुरुष अनेक सद्गुण प्राप्त कर सकता है और जो उपकारों को भूल जाता है अथवा गुण लिये बाद उपकारी पर मत्सर धारण करता है, उसमें फिर गुण वृद्धि नहीं हो सकती और सीखे हुए गुण प्रतिदिन मलिन . होते जाते हैं, अतएव उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ने वालों को कृतज्ञ हो गुण ग्रहण करने में निरंतर प्रयत्न करना चाहिये। ___२९. लोक वल्लभः - विनय, विवेक आदि सद्गुणों से प्रामाणिक लोकों को प्रियकर होने वाला पुरुष उत्तम गुणों का संग्रह कर सकता है। यहाँ पर लोक शब्द से सामान्य लोक नहीं समझना चाहिये, सामान्य लोकों को प्रायः कोई वल्लभ नहीं होता, क्योंकि दुनिया दो रंगी है - धर्म करने वालों की भी निन्दा करती है, कार्य करने वालों में दोष निकालती है और नहीं करने वालों को आलसी अथवा हतवीर्य कहती है। इसी से किसी बुद्धिमान ने कहा है कि 'लोक मूके ते फोक, तू तारूं संभाल' अर्थात् लोक चाहे सो कहते रहें, परन्तु तुझे तेरा (अपना) कार्य संभाल लेना चाहिये। इस लोकोक्ति में लोक शब्द से सामान्य लोक का ग्रहण किया है, परन्तु 'लोक वल्लभः' यहाँ तो लोक शब्द से प्रामाणिक लोक ही जानना चाहिये। सलज्जः - लज्जावान् पुरुष अंगीकार किये हुए नियमों को प्राण नष्ट होने पर भी नहीं छोड़ता, इसी से 'दशवैकालिकसूत्र' में नज्जा शब्द से संयम का ग्रहण किया है। संयम का कारण लज्जा
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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