SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १८७ धर्मसाधन में विघ्नभूत है, अतएव पोषण करने के लायक को पोषण करने वाला मनुष्य सद्गुणी बनता है। "दीर्घदर्शी विशेषज्ञः, कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृतिकर्मठः ॥९॥" २६. दीर्घदर्शी - अर्थ और अनर्थ दोनों का विचार करने वाला मनुष्य दीर्घदर्शी कहा जाता है। दीर्घ विचार करने वाला मनुष्य हर एक कार्य को विचार पूर्वक करता है, किन्तु सहसा नहीं करता। कहा भी है कि - .. "सहसा विदधीत न क्रिया - मविवेकः परमाऽऽपदां पदम् । वृणते हि विमृश्य कारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥१॥" - तात्पर्य - बिना विचार किये किसी क्रिया को न करें, अविवेक पूर्वक की हुई क्रिया परम आपत्ति की स्थानभूत होती है। विचारपूर्वक कार्य करने वालों को गुण में लुब्ध हुई, अर्थान् गुणाभिलाषिणी सम्पत्तियाँ स्वयमेव वरण करती है, अर्थात् उसके समीप में चली आती है। दीर्घदर्शी पुरुषों में भूत भविष्यत् काल का विचार करने की शक्ति होती है, अर्थात् अमुक कार्य करने से हानि और अमुक कार्य करने से लाभ होना संभव है। इस प्रकार विचार करने वाला मनुष्य सफल कार्य हो सुखी और गुणी होता है। ___. २७. विशेषज्ञः - वस्तु, अवस्तु, कृत्य, अकृत्य, आत्मा और पर में क्या अंतर है ? उसको जानने वाला अथवा आत्मा के गुण व दोष को पहचानने वाला 'विशेषज्ञ' कहलाता है। जिस मनुष्य में अपने वरताव और गुण-दोष पर दृष्टि देने की शक्ति नहीं है, वह पशु समान ही है, उसे आगे बढ़ने की आशा रखना आकाश कुसुमवत
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy