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श्री गुणानुरागकुलकम्
१८१ संग्रह कर उसको खा खुटाया, परन्तु वह वर्षा समय में खेत में बीज नहीं बो सका, इससे धान्य का अभाव हो गया और धान्याऽ भाव से नाना दुःखों की नोबत बजने लगी। उसी प्रकार धर्म के बिना अर्थ और काम की सेवा करने वालों की दशा होती है, क्योंकि धर्म, अर्थ और काम का बीज है, अर्थात् धर्म के प्रभाव से ही अर्थ
और काम की प्राप्ति होती है। अतएव धर्म की साधना किये बिना इतर पुरुषार्थों की साधना करने वाला मनुष्य कणवी के समान दुःखी होता है।
यदि कहा जाय कि धर्म और काम की सेवा करना तो ठीक है, लेकिन अर्थ.अनेक अनर्थों का उत्पादक है, इसलिये अर्थ की सेवा करना अनुचित है ? धर्म के परभव का सुधार और काम से सांसारिक सुखों का अनुभव होता है। . इसके समाधान में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि - गृहस्थावास में अर्थ (धन) के सिवाय धर्म और काम की सेवा यथार्थ रूप. से नहीं बन सकती, क्योंकि धनोपार्जन नहीं करने से ऋणी होना पड़ता है और ऋणी मनुष्य चिंतायुक्त होने से देव गुरु की भक्ति नहीं कर सकता, तथा चिंतायुक्त मनुष्य से सांसारिक सुखों का भी अनुभव नहीं हो सकता। अतएव धर्म और कामसेवा के साथ-साथ अर्थ सेवा की भी अत्यन्त आवश्यकता है।
. . यदि कोई यह कहेगा कि धर्म और अर्थ की सेवा करने वाला ऋणी नहीं होता। अतः धर्म तथा अर्थ की सेवा करना चाहिये, परन्तु दुर्गति दायक काम की सेवा क्यों की जाय ? काम से तो कोड़ों कोस दूर रहना उत्तम है।