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________________ १८० श्री गुणानुरागकुलकम् त्रिवर्ग की साधना है, अतएव गृहस्थों के लिये त्रिवर्ग के साथ मोक्ष शब्द रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब परस्पर अविरोधपने . त्रिवर्ग को साधन करने की मर्यादा दिखाई जाती है - जो अहर्निश धर्म और अर्थ को छोड़कर काम पुरुषार्थ की ही साधना करने में लगे रहते हैं, वे वनगज के समान पराधीन हो दुःखी होते हैं। जैसे वनगज स्वजीवित को हार कर मरणं दशा को.. प्राप्त होता है, उसी प्रकार कामाऽऽ सक्त मनुष्य का भी धर्म, धन और शरीर नष्ट हो जाता है, इसलिये केवल कामसेवा करना अनुचित है। . जो मनुष्य धर्म तथा काम का अनादर कर केवल अर्थ-सेवा. की अभिलाषा रखते हैं, वे सिंह के समान पाप के भागी होते हैं। . सिंह हस्ति प्रमुख पशुओं को मारकर स्वयं थोड़ा खाता है और अवशेष दूसरों के लिए छोड़ देता है। इसी तरह अर्थसाधक पुरुष भी अठारह पाप स्थानक सेवन कर वित्तोपार्जन करते हैं, उसको स्वयं अल्प खाकर शेष संबंधियों के लिए छोड़ते हैं, किन्तु स्वयं उस वित्तोपार्जन से दुर्गतियों के पात्र बनते हैं। अतएव केवल अर्थ सेवा करना भी अनुचित है। इसी प्रकार अर्थ और काम को छोड़कर केवल धर्मसेवा करने से भी गृहस्थ धर्म का अभाव होता है, क्योंकि केवल धर्मसेवा करना मुमुक्षजनों (संसारत्यागियों) का काम है। यहाँ पर तो गृहस्थों का अधिकार है। इससे केवल धर्म सेवा करना गृहस्थों के लिये अनुचित है। __जो लोग धर्म को छोड़कर अर्थ और काम की सेवा करते हैं, वे बीज खा जाने वाले 'कणवी' के समान पश्चाताप और दुःख के पात्र बनते हैं। किसी कणवी ने अत्यन्त परिश्रम से धान्य (बीज)
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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