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श्री गुणानुरागकुलकम्
१७५ को सुनकर श्रोता निःसंशय हो गया, यदि वह फिर पूछकर खुलासा नहीं करता, तो इस विषय में दूसरों के साथ में तकरार किये बिना नहीं रहता। इसी से धर्म श्रवण में बुद्धि के आठ गुणों की आवश्यकता है। बुद्धि के आठ गुण इस प्रकार हैं -
शुश्रुषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहार्थविज्ञानं, तत्वज्ञानं च धीगुणाः ॥१॥ . भावार्थ - १. (शुश्रुषा) सुनने की इच्छा, २. (श्रवणं) सुनना, ३. (ग्रहणं) सुने हुए अर्थ को धारण करना, ४. (धारणं) धारण किए हुए अर्थ को नहीं भूलना, ५. (ऊहा) जाने हुए अर्थ को अवलम्बन कर उसके समान अन्य विषय में व्याप्ति के द्वार तर्क करना, ६. (अपोह) अनुभव और युक्तियों से विरुद्ध हिंसादि अनर्थजनक कार्यों से अलग होना, ७. अथवा सामान्य ज्ञान सो 'ऊहा' और विशेष ज्ञान सो 'अपोह' कहाता है। (अर्थविज्ञानं) तर्क वितर्क के बल से मोह, संदेह तथा विपर्यास jहित वस्तु की पहचान करना, ८. (तत्वज्ञानं.) अमुक वस्तु इसी प्रकार है, ऐसा निश्चय करना; ये आठ बुद्धि के
गुण हैं। .
... अष्टगुणों से जिसकी बुद्धि प्रौढ़भाव को प्राप्त हुई है, वह कदापि अकल्याणकारी नहीं बन सकता; इसी से बुद्धिगुण पूर्वक धर्म श्रवण करने वाला पुरुष धर्म के लायक कहा गया है। यहाँ धर्मश्रवण विशेष गुणों का दायक है, बुद्धि के गुणों में जो ‘श्रवण' गुण है, वह श्रवण मात्र अर्थ का बोधक है, इससे एकता का संशय करना उचित नहीं है। धर्म श्रवण करने वालों को अनेक गुण प्राप्त होते हैं। कहा भी है कि - "यथावस्थित सुभाषितवाला मन दुःख को नष्ट करता है, खेद रूप दावानल से संतत पुरुषों को शांत बनाता है। भूखों को बोध देता है और व्याकुलता को मिटाता है; अर्थात्