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________________ १७६ श्री गुणानुरागकुलकम् सुन्दर धर्म श्रवण उत्तमोत्तम वस्तुओं को देनेवाला होता है। अतएव अनेक सद्गुणों की प्राप्ति का हेतुभूत धर्मश्रवण करना चाहिये, जिससे उभय लोक में सुख प्राप्त हो । "अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्म् यतः । अन्योन्याप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयेत् ॥६॥" भावार्थ - १५. अजीर्ण में भोजन छोड़ने वाला पुरुष सुखी रहता है और सुखी मनुष्य धर्म की साधना भले प्रकार कर सकता है। इसी से व्यवहारनय का आश्रय लेकर कई एक लोग कहते हैं कि - 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'. वस्तुस्थिति के अनुसार तो ऐसा कहना उचित है कि - 'शरीर माद्यं खलु. पाप साधनम्' अर्थात् शरीर प्रथम पाप का कारण है। जिनके शरीर नहीं है, उनके पाप का भी बंध नहीं होता । सिद्ध भगवान अशरीरी होने से पाप बंध रहितः है, अतएव शरीर पाप का कारण और पाप शरीर का कारण है। जहाँ शरीर का अभाव है, वहाँ पाप का अभाव है और जहाँ पाप का अभाव है, वहाँ शरीर का अभाव है। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक व्याप्ति है, तो भी व्यवहार दृष्टि का अवलम्बन कर शरीर को प्रथम धर्मसाधन माना है। इसीलिये अजीर्ण में भोजन का त्याग बताया गया है। वैदिक शास्त्रों में लिखा भी है कि 'अजीर्णप्रभावाः रोगाः ' समस्त रोगों की उत्पत्ति अजीर्ण से होती है । यदि कोई ऐसा कहेगा कि - 'धातुक्षयप्रभवाः रोगाः ' ऐसा भी शास्त्रों में लिखा देख पड़ता है, तो इनमें प्रमाणिक रूप से कौन-सा वचन मान्य है ? इसके उत्तर में जानना चाहिये कि धातु क्षय भी अजीर्ण से ही होता है। जो खाये हुए अन्नादि की परिपाक दशा पूर्ण रूप से हो जाय, तो धातुक्षय नहीं हो सकता, चाहे जितना परिश्रम किया जाय, परन्तु शरीर निर्बलता अंशमात्र नहीं हो सकती। जो ·
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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