________________
१५९
श्री गुणानुरागकुलकम्
शब्दार्थ - (जो) जो (पुरिसो) मनुष्य (धम्मअत्थपमुहेसु) धर्म अर्थ प्रमुख (पुरिसत्येसु) पुरुषार्थों में (अन्नोन्नं) परस्पर (अव्वाबाह) बाधारहित (पवट्टइ) प्रवृत्ति करता है, (एसो) वह (मज्झिमरूवो) मध्यम रूप (हवइ) होता
भावार्थ - जो धर्म, अर्थ और काम; इन तीन पुरुषार्थों को परस्पर बाधा रहित साधन करता है, वह 'मध्यमपुरुष' कहलाता है।
विवेचन - धर्म, अर्थ और काम को किसी प्रकार की बाधा न पड़े, इस प्रकार तीनों पुरुषार्थों का उचित सेवन करने वाले मनुष्य मध्यमभेद में गिने जाते हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट जान पड़ती है कि ऐसा पुरुष मार्गानुसारी गुणों के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि 'धर्म, अर्थ और काम को परस्पर बाधारहित सेवन करना' यह मार्गानुसारी गुणों में से इक्कीसवाँ गुण है, अतएव मार्गानुसारी सदाचारप्रिय और मध्यस्थ स्वभाव वाले पुरुष मध्यमभेद में गिने जा सकते हैं। हर एक धर्म से सार -सार तत्त्व को खींच लेना, सदाचार सम्पन्न मनुष्यों के सद्गुणों पर अनुरागी बनना और कलह से रहित हो समान दृष्टि रहना यह मार्गानुसारी पुरुषों का ही काम है। मार्गानुसारी पुरुषों का हृदय आदर्श के समान है, उसमें सद्गुणों का 'प्रतिबिम्ब पड़े बिना नहीं रह सकता और वह प्रतिबिम्ब प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है। मार्गानुसारी पुरुषों को आत्मा महान् कार्य सम्पादन के लिये या अनन्त या असंख्य भवों की व्याधि मिटाने के लिये और आत्मशक्ति, विचारबल या नीतिशास्त्र का विकास करने के लिए समर्थ होता है। इसलिये प्रसंग प्राप्त मार्गानुसारी गुणों का स्वरूप लिखा जाता है, जिसको मनन करने से मनुष्य सुगमता से उच्चकोटि में प्रवेश कर सकता है।