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________________ १६० श्री गुणानुरागकुलकम् "न्यायसम्पन्नविभवः, शिष्टाचार प्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ॥ १ ॥ " १. न्याय सम्पन्न विभवः' प्रथम न्यायोपार्जित द्रव्य हो, तो उसके प्रभाव से सभी सद्गुण प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु न्याय को जाने बिना न्याय का पालन भले प्रकार नहीं हो सकता, अतएव न्याय का स्वरूप यह है कि "स्वामिद्रोहपमित्रद्रोहविश्व. सितवञ्चनचौर्याऽऽदिगर्द्धार्थोपार्जन परिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः स्वस्ववर्णानुरूपः सदाचारो न्याय इति । ” अर्थात् स्वामिद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वस्त पुरुषों का वञ्चन और चोरी आदि निन्दित कर्मों से द्रव्य उपार्जन करना इत्यादि कुकर्मों का त्याग कर अपने-अपने वर्णानुसार जो सदाचार है, उसका नाम न्याय और उससे प्राप्त जो द्रव्य है, उसका नाम 'न्याय सम्पन्न द्रव्य' है। न्यायोपार्जित द्रव्य उभय लोक में सुख कारक और अन्यायोपार्जित द्रव्य दुःखदायक होता है। - अन्याय से पैदा की हुई लक्ष्मी का परिभोग करने से ध बंधन आदि राजदण्ड और लोकापमान होता है और परलोक में नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों में वेदना का अनुभव करना पड़ता है। लोगों में यह भी शङ्का होती है कि इसके पास बिलकुल द्रव्य नहीं था, तो क्या किसी को ठगकर या चोरी करके द्रव्य लाया है ? कदाचित् प्रबल पुण्य का उदय हुआ, तो इस लोक में तो लोकापमान या राजदण्ड नहीं होगा, किन्तु भवान्तर में तो उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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