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________________ १५८ श्री गुणानुरागकुलकम् बाद स्वस्त्री में तथा स्त्री को स्वपति में, जो संतोष हो, वही 'शील' कहा जाता है। हर एक पुरुष को कौमारावस्था में अठारह या बीस तथा स्त्री को सोलह वर्ष तक तो अवश्य ब्रह्मचर्य परिपालन करना चाहिये। विवाह के अनन्तर पुरुषों को स्वदार और स्त्रियों को स्वपति में संतोष व्रत धारण करना चाहिये। जहाँ पर पुरुष स्त्रियों में शील दृढ़ता का सद्गुण होता है, वहाँ निरन्तर अटूट स्नेह भाव बना रहता है और जो पुरुष पर-स्त्रियों में तथा स्त्रियाँ पर-पुरुषों में आसक्त हैं, वे अनेक जन्म तक क्लीबता, तिर्यक् योनि में उत्पत्ति, दौर्भारय, निर्बलता और अपमान आदि विपत्तियों के पात्र बनकर दुःखी होते हैं। - शील परिपालन से शरीर पूर्ण निरोगी और तेजस्वी बनता है, इसलिये शीलवान् विद्युत की तरह दूसरों के चित्त को अपने तरफ खींचकर सुशील और सद्गुणी बना सकता है। संसार में जो जो पुरुष पराक्रमी तथा महत्कार्यकर्ता हुए हैं, वे शील के प्रभाव से ही प्रख्यात हुए हैं। स्वदार सन्तोषी मनुष्य यदि दीक्षा लेकर भी संयोगवश विकारी होगा, तो भी वह अपनी योग्यता और उत्तमता का विचार कर अकार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकेगा और न उसको कोई स्त्री मोहपाश में डाल सकेगी, क्योंकि वह स्त्रियों से निरन्तर बचकर रहता है। अब मध्यपुरुषों का स्वरूप कहते हैं - पुरिसत्थेसु पवट्टइ, जो पुरिसो धम्मअत्थपमुहेसु। अन्नोन्नमव्वाबाहं, मझिमरूवो हवइ एसो ॥२१॥ , पुरुषार्थेषु प्रवर्त्तते, यः पुरुषो धर्मार्थप्रभुखेषु । अन्योऽन्यमव्याबाधं, मध्यमरूपो भवत्येषः ॥२१॥ .
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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