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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १५७ जो तुम्हारे विचारों में बाधक न हो और उसी से संतुष्ट रहो। अगर सहचारिणी बनने के योग्य कोई न मिले या मिलने पर वह तुमको प्राप्त न हो सके, तो अविवाहित रहने का ही प्रयास करो। विवाहित स्थिति चारों तरफ उड़ती हुई मनोवृत्तियों को रोकने के लिए संकुचित या मर्यादित करने के लिये है, वह यदि दोनों के या एक के असंतोष का कारण हो जाय, तो उलटी हानिकारक होगी। अतः अपनी शक्ति, अपने विचार, अपनी स्थिति, अपने साधन और पात्र की योग्यता आदि का विचार कर के ही व्याह करो; नहीं तो कुंवारे ही रहो। यह माना जाता है कि विवाह करना ही मनुष्य का मुख्य नियम है और कुँवारा रहना अपवाद है; परन्तु तुम्हें इसके बदले कुँवारा रहकर ब्रह्मचर्य पालना या सारी अथवा मुख्य-मुख्य बातों की अनुकूलता होने पर व्याह करना, इसे ही मुख्य नियम बना लेना चाहिये। विवाहित जीवन को. विषय वासनाओं के लिए अमर्यादित, यथेच्छ स्वतंत्र मानना सर्वथा भूलं है। वासनाओं को कम करना और आत्मिक एकता करना सीखो। अश्लील शब्दों से, अश्लील दृश्यों से और अश्लील कल्पनाओं से दूर रहो। तुम किसी के सगाई ब्याह मत करो, क्योंकि तुम्हें इसका किसी ने अधिकार नहीं दे रखा है। विवाह के आशय को नहीं समझने वाले और सहचारीपन के कर्त्तव्य को नहीं पहचानने वाले पात्रों को जो मनुष्य एक-दूसरे की बलात् प्राप्त हुई दासता या गुलामी में पटकता है, वह चौथे व्रत का अतिक्रम करता है, दया का खून करता है और चोरी करता है।" . मन को स्त्रीसमागम से दूर रखना, स्त्रियों के साथ रागदृष्टि से बातचीत न करना, काम विकार के नेत्रों से स्त्रियों को न देखना तथा स्त्रियों का स्पर्श न करना, ये अथवा ब्रह्मचर्य और विवाह हुए
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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