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________________ १५६ श्री गुणानुरागकुलकम् थी कि जिसको सुनने से आश्चर्य और संशय उत्पन्न होता है, लेकिन इस समय ऐसा न होने का कारण शारीरिक निर्बलता अर्थात् वीर्य रक्षा न करना ही है। पूर्व पुरुषों में वीर्यरक्षा (ब्रह्मचर्य) रखने का सद्गुण महोत्तम प्रकार का था, इससे वे आश्चर्यजनक कार्यों को क्षण मात्र में कर डालते थे। इसलिये साधुओं को उचित है कि सर्वप्रकारेण ब्रह्मचर्य पालन करते रहें, किन्तु विषयाधीन न हों।. .. इसी तरह श्रावकों को भी ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये, परन्तु ब्रह्मचर्य का पालन करना बड़ा कठिन है, इससे यदि सर्वथा ब्रह्मचर्य न पाला जा सकता हो, तो स्वदारसन्तोषव्रत धारण करना चाहिये, क्योंकि प्राण संदेह को उत्पन् करने वाला, उत्कृष्ट वैर का कारण और दोनों लोक में विरुद्ध पर-स्त्रीगमन, बुद्धिमानों को अवश्य छोड़ने के योग्य है। पर-स्त्रीगामी का सर्वस्व नष्ट होता है, बधब्धनादि कष्ट में पड़कर आखिर नरक का अतिथी बनना पड़ता है। पर-स्त्रियों में रमण करने की इच्छा विश्वविजयी रावण, कीचक, पद्मोत्तर और ललिताङ्ग आदि अनेक लोग निन्दा के पात्र बनकर दुःखी हुए हैं। अतएव अतिलावण्यवती, सौन्दर्य सम्पन्न और सकल कलाओं में निपुण भी जो परस्त्री हो, तो भी वह त्याग करने ही के लायक हैं। जब शास्त्रकार स्वस्त्री में भी अति आसक्त रहना वर्जित करते हैं, तो पर-स्त्रीगमन की बात ही क्या है ? वह तो सर्वथा त्याज्य ही है। ___ "तुम्हें जिस वीर्य या पराक्रम की प्राप्ति हुई है, वह तुम्हारी और दूसरों की उन्नति करने के लिये सबसे प्रधान और उत्तम साधन है। उसको पाशविक प्रवृत्तियों के संतुष्ट करने में मत खोओ। उच्च आनन्द की पहचान करना सीखो, यदि बन सके, तो अखण्ड ब्रह्मचारी रहो, नहीं तो ऐसी स्त्री खोजकर अपनी सहचारिणी बनाओ,
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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