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________________ श्री गुणांनुरागकुलकम् १५५ होता, वे महापुरुष उत्तम कोटि में समझे जा सकते हैं। इससे यह बात सिद्ध हुई कि साधुओं को संसारावस्था में रमणियों के साथ की हुई कार्म क्रीड़ा का स्मरण न कर और सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन कर वीर्यरक्षा करने में उद्यत रहना चाहिए, क्योंकि जिसने वीर्यरक्षा नहीं की, वह धर्म के ऊँचे सोपान पर चढ़ने के लिये असमर्थ है। वीर्य मनुष्य के शरीर का राजा है, जैसे राजा बिना राज्य व्यवस्था नहीं चल सकती, वैसे ही वीर्यहीन मनुष्य प्रभा रहित हो कम हिम्मत होता है, इससे वह अपनी आत्मशक्ति का विकास भले प्रकार नहीं कर सकता। इसी से श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने लिखा है कि - “प्रत्यातु लक्ष्मीश्वपलस्वभावा, गुणा विवेकप्रमुखाः प्रयान्तु । प्राणाश्च गच्छन्तु कृतप्रयाणा:, मा यातु सत्त्वं तु नृणां कदाचित्" ॥१॥ भावार्थ - चाहे चपल स्वभावी लक्ष्मी चली जाय, चाहे विवेक आदि गुण चले जायँ और प्रयाणोन्मुख प्राण भी चले जायँ, परन्तु मनुष्यों का सत्त्व - वीर्य कभी नहीं जाना चाहिये, क्योंकि वीर्य रक्षा की जायगी, तो विवेक . प्रमुख सभी गुण स्वयं उत्पन्न हो जायँगे। वीर्य रक्षा करना सर्वोत्तम गुण है, इसी से दुर्जय कर्मों का नाश होकर परमानन्द पद प्राप्त होता है। अतएव व्याख्यान देने वालों इस गुण की आवश्यकता है तथा लिखने वालों को, युद्ध वीरों को और वादवीरों को इसी गुण की आवश्यकता है। मुनिजन भी इस गुण के बिना आत्म कल्याण और देशोपकार नहीं कर सकते। कोई भी महत्व का कार्य जिसको देखकर लोक आश्चर्यांवित हों, वह वीर्यरक्षा के अभाव में पूर्ण नहीं हो सकता। पूर्व समय में मनुष्यों की दिव्यशक्ति, उनका अभ्यास और उनकी स्मरणशक्ति, इतनी प्रबल
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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