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________________ १५४ श्री गुणानुरागकुलकम् उत्तम पुरुषों के लक्षण पिच्छिय जुवईरूवं, मणसा चिंतेइ अहव खणमेगं । जो नायरइ अकज्जं, पत्थिज्जंतो वि इत्थीहिं ॥१९॥ साहू वा सड्डो वा, सदारसंतोससायरो हुज्जा । सो पण उत्तमाणुओ, नायव्वो थोवसंसारो ॥ २० ॥ प्रेक्ष्य युवतीरूपं, मनसा चिन्तयत्यथवा क्षणमेकम् । यो नाचरत्यकार्यं, प्रार्थ्यमानोऽपि स्त्रीभिः ॥ १९ ॥ साधुर्वा श्राद्धो वा स्वदारसन्तोषसादरो भवेत् । स पुनरुत्तममनुष्यो, ज्ञातव्यः स्तोकसंसारः ॥ २० ॥ . शब्दार्थ - (जो ) जो (साहू) साधु (जवईरूवं) स्त्रियों के रूप को (पिच्छिय) अवलोकन कर (खणमेगं) क्षण मात्र (मणसा) मनसे (चिंतेइ ) विषय की चिंता करता है (अहव) अथवा (इत्थीहिं) स्त्रियों से (पत्थिज्जतो वि) प्रार्थित् याचित होने पर भी (अकज्जं) अकार्य को ( नायरइ) नहीं आचरण करता ॥१९॥ (साहू) साधु (वा) अथवा (सड्डो) श्रावक (सदारंसंतोससायरो) स्वस्त्री में अतीव संतोषी (हुज्जा) हो (सो) वह साधु और श्रावक (थोवसंसारो) अल्पसंसारी (उत्तममणुओ) उत्तम मनुष्य (नायव्वो) जानना चाहिये । भावार्थ - युवावस्थावाली रूपवती स्त्रियों को अवलोकनकर क्षणभर मन से विषय भोग की इच्छा अथवा स्त्रियों से भोग के लिए प्रार्थित होने पर भी जो पुरुष विषयाचरण नहीं करता, किन्तु साधु हो तो स्वकीय ब्रह्मचर्य व श्रावक हो, तो ब्रह्मचर्य. अथवा स्वदारसन्तोष व्रत पालन करता रहता है, वह 'उत्तम' पुरुष कहा जाता है। विवेचन- जिन साधु अथवा स्वदारसंतोषी श्रावकों का चित्त युवतियों के रूप, हाव, भाव आदि को देखकर चल-विचल नहीं
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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