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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १५३ वचन प्रहारों से फिर संभलकर विषय विरक्त हो गया, अतएव रथनेमि पुरुषोत्तम ही है, क्योंकि जो मनुष्य अकार्य में प्रवृत्ति पर बैठता है, वह पुरुषोत्तम नहीं कहा जा सकता। इसलिये जो पुरुष विकाराधीन होकर अकार्य में नहीं फँसता, किन्तु सावधान हो आजन्म ब्रह्मचर्य पालन करता रहता है, वह 'उत्तमोत्तम' ही है। वास्तव में कभी विकाराधीन न होना सर्वोत्तमोत्तम है, परन्तु कदाचित् प्रसंगवश चित्त चल-विचल हो जाय, तो उसको शीघ्र रोककर शुभ विचारों में प्रवृत्ति करना चाहिये, क्योंकि जैसे जल से सरोवर, धन से प्रभुता, वेग से अश्व, चन्द्र से रात्रि, जीव से शरीर, सद्गुण से पुत्र, उत्तमरस से काव्य, शीतल छाया से वृक्ष, लवण से व्यंजन और प्रेम से प्रमदा शोभित है, उसी तरह उत्तम विचारों से मनुष्य की शोभा होती है। अतएव सद्गुण की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को निरंतर अपने विचारों को सुधारते रहना चाहिये। जो विचारों को सुधारता रहता है, उसको विषयादि विकार कभी नहीं सतातें। विचार का दूसरा नाम भावना है। भावना दो प्रकार की है - एक तो शुभ भावना और दूसरी अशुभ भावना । पूर्व वर्णित मैत्री आदि शुभ और क्रोध आदि अशुभ भावना कही जाती है। शुभ भावनाओं से आत्मा निर्विकारी और अशुभ भावनाओं से विकारी होता है। ब्रह्मचारियों को नित्य शुभ भावनाओं की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिये, जिससे आत्मा निर्विकारी बन उत्तमोत्तम बने, क्योंकि निर्विकारी मनुष्य ही आर्त्त रौद्र ध्यान, मद मात्सर्य आदि दोषों से रहित हो अपना और दूसरों का कल्याण कर उत्तमोत्तम पर विलासी बन सकता है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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