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श्री गुणानुरागकुलकम् हैं। विषयों में आसक्त रहने से नरकादि गतियों का अनुभव करना पड़ता है, अतएव विषयों में चित्त को जोड़ना ठीक नहीं है।
जो पुरुष युवतिगत मनोविकार को शीघ्र खींच कर फिर संभल जाते हैं और फिर आजन्म विषयादि विकारों के आधीन न हो अखंड ब्रह्मचर्य पालन करते हैं, वे पुरुष 'रथनेमि' की तरह उत्तमोत्तम कोटि में प्रविष्ट हो सकते हैं, क्योंकि पड़कर संभलना बहुत मुश्किल है, यहाँ पर इसी विषय को दृढ़ करने के लिए रथनेमि. का दृष्टांत लिखा जाता है -
जिस समय भगवान 'अरिष्टनेमि' ने राज्यादि समस्त परिभोगों का त्याग कर संयम स्वीकार किया, तब उनका बड़ा भाई रथनेमि काम से पीड़ित हो सतीशिरोमणि बाल · ब्रह्मचारिणी रूप सौभाग्यान्विता 'राजीमती' की परिचर्या करने लगा। रथनेमि का अभिप्राय यह था कि यदि मैं राजीमती को संतुष्ट रक्खूगा, तो वह मेरे साथ भोग विलास करेगी, परन्तु राजीमती तो भगवान् के दीक्षा लेने के बाद बिलकुल भोगों से विरक्त हो गई थी।'
रथनेमि का यह दुष्ट अध्यवसाय राजीमती को मालूम हो गया, इससे वह एक दिन शिखरिणी का भोजन करके बैठी थी, उसी समय रथनेमि उसके पास आया, तब राजीमती ने मयणफल को सूंघकर खाये हुए भोजन का वान्त किया और कहा कि - हे रथनेमि ! इस वान्त शिखरिणी को तूं खाले। रथनेमि ने कहा - यह भोजन क्या खाने योग्य है ? भला ! इसे मैं कैसे खा सकता हूँ?
राजीमती ने कहा जो तू रसनेन्द्रियविषयभूत शिखरिणी को नहीं खा सकता, तो भगवान् अरिष्टनेमिजी की दृष्टि से उपयुक्त मेरी