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श्री गुणानुरागकुलकम्
१५१ वाँछा क्यों करता है ? क्या यह अकार्य करना तुझको उचित है। इसलिये -
घिरत्यु तेऽजसोकामी !, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेड; सेयं तं मरणं भवे ॥७॥
भावार्थ - हे अयशस्कामिन् ! तेरे पौरुषत्व को धिक्कार हो, जो तू असंयम से जीने की इच्छा से वान्तभोगों के भोगने की इच्छा करता है। मर्यादा उल्लंघन करने से तो तेरा मरना ही कल्याण रूप है, अर्थात् अकार्य प्रवृत्ति से तेरा कल्याण नहीं होगा, क्योंकि जलती हुई अग्नि में पैठना अच्छा है, परन्तु शीलस्खलित जीवित अच्छा नहीं है।
राजीमती के ऐसे वचन प्रहारों से संभलकर रथनेमि वैराग्य से दीक्षित हुआ। उधर राजीमती ने भी संसार को असार जानकर चारित्र ग्रहण कर लिया। एक समय रथनेमि द्वारावती नगरी में गोचरी
लेने को गया, वहाँ ऊँच-नीच, मध्यम कुलों में पर्यटन कर पीछा . भगवान् के पास आते हुए रास्ते में वर्षा बरसने से पीड़ित हो, एक
गुहा में ठहर गया। इतने में राजीमती भी भगवान् को वन्दन कर पीछी लौटी और वर्षा बहुत होने लगी, इससे 'वर्षा जब तक बंद न . हो, तब तक कहीं ठहरना चाहिये ?' ऐसा विचार करके जिस गुहा में रथनेमि था, उसी में आई और भींजे हुए कपड़ों को उतार कर सुखाने लगी।
दिव्यरूपधारिणी संयती के अङ्ग प्रत्यङ्गों को देखकर रथनेमि फिर कामातुर हो भोगों के लिए प्रार्थना करने लगा, तब संयती राजीमती ने धैर्य धारण कर कहा कि -
अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगविह्णणो। मा कुले गंधणे होमो, संजमं निहुओ चर ॥८॥