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________________ १४८ श्री गुणानुरागकुलकम् उत्तमोत्तम पुरुषों का स्वरूप - एवंविह जुवइगओ, जो रागी हुज्ज कह वि इगसमयं वीयसमयम्मि निंदइ, तं पावं सव्वभावेण ॥१७॥ एवंविधयुवतिगतो, यो रागी भवेत्कथमप्येकसमये । द्वितीयसमये निन्दति, तत्पापं सर्वभावेन ॥१७॥ भावार्थ - (एवंविह) इस प्रकार की सर्वोत्तम रूप वाली (जुवइगओ) स्त्रियों में प्राप्त (जो) जो पुरुष (कह वि) किसी प्रकार (इग समयं) एक समय मात्र (रागी) विकारी (हुज्ज) हो (वीय समयम्मि) दूसरे समय में (तं) उस (पावं) पाप को (सव्वभावेणं) सर्वभाव से (निंदइ) निन्दता है। जम्मम्मि तम्मि न पुणो, हविज्ज रागी मणम्मि कया। सो होइ उत्तमुत्तम-रूवो पुरिसो महासत्तो ॥१८॥ जन्मनि तस्मिन्न पुन-भवेद्रागी मनसि कदाचित्। स भवत्युत्तमोत्तम-रूपः पुरुषो महासत्त्वः ॥१८॥ भावार्थ - (पुणो) फिर (तम्मि) उस (जम्मम्मि) जन्म में (कया) कभी (मणम्मि) मन में (रागी) विकारी (न) नहीं (हविज्ज) होवे (सो) वह (महासत्तो) महासत्त्ववान् (पुरिसो) पुरुष (उत्तमुत्तमरूवो) उतमोत्तमरूप (होइ) होता है, अर्थात् कहा जाता है। भावार्थ - सर्वोत्तम रूप वाली स्त्रियों में प्राप्त पुरुष कदाचित् समय मात्र विकारी हो, दूसरे समय में संभलकर यदि पूर्ण भाव से उस पाप की निन्दा, अर्थात् पश्चाताप करता है और फिर जन्म पर्यन्त जिसका मन विकाराधीन नहीं होता, वह मनुष्य उत्तमोत्तम और महाबलवान् कहा जाता है। विवेचन - स्त्रियों का स्मरण न करना, स्त्रियों के श्रृङ्गारादि का गुण वर्णन न करना, स्त्रियों के साथ हास्य कुतूहल न करना,
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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