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श्री गुणानुरागकुलकम्
१४७ . इसी अवसर में चंपा नगरी में 'विमल केवली' पधारे। उनके संदुपदेशों को सुनकर जिनदास सेठ ने पूछा कि - स्वामिन्! चौरासी हजार तथारूप साधुओं को पारणा कराने का मैंने अभिग्रह लिया है,वह कब पूर्ण होगा?
. विमलकेवली भगवान् ने कहा कि चौरासी हजार साधुओं का एकदम समागम मिलना दुर्लभ है, कदाचित दैव योग से मिल भी जाय, तो इतने साधुओं के लिये एक ही घर में निर्दोष आहार का मिलना आकाश पुष्पवत् है। इसलिये कच्छदेशस्थ कौशाम्बी नगरी में स्थित शीलालङ्कारसुशोभित विजयकुँवर और विजयाकुँवरी की अशनादिक से भक्ति करो, उससे उतना ही पुण्य होगा, जितना तुम चाहते हो। कहा भी है कि -
चउरासीइ सहस्साणं, समणाणं पारणेणं जं पुण्णं। .: तं किण्हसुक्कपक्खे सुसीलपिय कंतभत्तेण ॥१॥ - भावार्थ - चउरासी हजार साधुओं को पारणा के दिन बहिराने से जो पुण्य होता है, उतना कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में शीलप्रिय - विजयकुँवर और विजयाकुँवरी के भक्त को होता है।
. इस बात को सुन 'जिनदास' कौशाम्बी नगरी में जाकर नागरिक लोगों के और उनके माता - पिताओं के आगे उन दोनों का दुर्द्धर आश्चर्योत्पादक चरित्र प्रकट करता हुआ और शुद्ध अन्न, पान, वस्त्र आदिक से भक्ति कर अपने स्थान को पीछा लौट आया। तदनन्तर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई मानकर विजयकुँवर और विजयाकुँवरी पारमेश्वरी दीक्षा महोत्सवपूर्वक लेते हुए और निरतीचार चारित्र पालन कर मोक्ष धाम को प्राप्त हुए।