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________________ १४६ श्री गुणानुरागकुलकम् उठती हैं वह धर्मात्माओं को आनन्ददायक कैसे हो सकता है? अतएव संसार में स्त्रकू, चन्दन और अंगना आदि पुद्गलजनित विनाशी विषयसुख हैं, वे परमार्थतः दुःखरूप ही हैं, इसके त्रिकरणशुद्धि पूर्वक आजन्म पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करूँगा । अपन दोनों का यथार्थ समागम पूर्वपुण्य के योग से ही प्राप्त हुआ है, लेकिन यह वृत्तान्त किसी को मालूम नहीं हो जाय तो अवश्य दीक्षा ले लेनी चाहिए। अपने प्रियतम के इस प्रकार महोत्तम वचनों को सुनकर विजया अत्यानन्दित हुई और पति आज्ञा को शिरोधार्य किया। इस प्रकार ये दोनों (दम्पत्ति) स्वजीवित की तरह ब्रह्मचर्य को परिपालन करने लगे। अहा! हा! नवीन यौवन की फैलती हुई अवस्था में भी विवाह करके जिन्होंने सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन किया, यह आश्चर्य किसके हृदय को आनन्दित नहीं कर सकता? स्त्री के साथ एक ही सुकोमल शय्या के ऊपर शयन करना और फिर मदन के वशवर्ती न होना यह कितनी अमेय शक्ति है? श्रृंगार रूपी वृक्षों के लिए मेघ समान, रसिक क्रीड़ा का प्रवाहमय, कामदेव का प्रियबन्धु, चतुर वचनरूपी मोतियों का समुद्र, सौभाग्यलक्ष्मी का निधिभूत और स्त्रियों के नेत्ररूपी चकोरों को आनन्दित करने में पूर्णचन्द्र ऐसे नवीन यौवन को प्राप्त हुए सत्पुरुष मनोविकार की मलिनता से कलंकित नहीं बनते, अतएव उनकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही थोड़ी है। दम्पत्ती निर्विकारी और भावचरित्र की पात्रता को धारण कर उत्तमोत्तम शील विषयक विचार करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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