________________
१४५
श्री गुणानुरागकुलकम् (बालक तथा बालिका) की प्रतिज्ञा की मालूम नहीं थी, इससे इनका परस्पर विवाह हो गया। रात्रि के समय विजया सोलह श्रृङ्गार सजकर और दिव्य वस्त्र धारण कर पति के शयनागार में प्राप्त हुई, तब विजयकुँवर ने अत्यन्त मधुर वचनों से कहा कि -
हे सुभगे! तूं मेरा हृदय, जीव, उच्छास और प्राण है, क्योंकि संसार में प्राणियों के प्रिया ही सर्वस्व है। तुम्हारे सदृश प्रियतमा को पाकर मैं स्वर्गलोक के सुखों को भी तृणसमान समझता हूँ। परन्तु शुक्लपक्ष में मैंने त्रिकरणशुद्धि पूर्वक सर्वतः ब्रह्मचर्य धारण किया है, अब केवल उस पक्ष के तीन दिन बाकी है, इसलिए उनके बीत जाने पर आनन्द का समय प्राप्त होगा। इस बात को सुनकर विजया दुःखी हुई। __तब विजयकुँवर ने दुःखी होने का कारण पूछा, जब हाथ जोड़कर विनयावनत हो विजया ने कहा कि -स्वामिन् ! मेरे भी कृष्णपक्ष में सर्वतः शील पालने का अभिग्रह लिया हुआ है, इससे आप दूसरी रमणी के साथ विवाह करिये, क्योंकि पुरुषों के अनेक स्त्रियाँ हो सकती हैं।
यह सुन विजयकुँवर बोला कि - हे सुशीले! मैं तो प्रथम ही दीक्षा लेने वाला था, परन्तु माता पिता ने हठ से विवाह कर दिया। इसलिए मुझे दूसरी स्त्री के साथ विवाह करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विषयसेवन से कुछ आयुवृद्धि नहीं होती, किन्तु बहुत काल पर्यन्त सेवन किए हुए भी विषय पर्यवसान (अन्त) में दुःखदायक ही होते हैं। ... जिस विषय सेवन से कंप, थकावट, परिश्रम, मूर्छा, भ्रम, ग्लानि, बल का क्षय और क्षयरोग आदि अनेक विपत्तियाँ जाग