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________________ १४४ श्री गुणानुरागकुलकम् होती है। जो कुलवती स्त्रियाँ अखण्ड शीलव्रत को धारण करती हैं, उनकी व्याघ्र सर्प जल अग्नि आदिक से होने वाली विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, इनके आनन्द मंगल सदा बने रहते हैं, देवता उनके समीप ही रहते हैं, उनकी कीर्ति संसार में छाई रहती है, और स्वर्ग तथा मोक्ष के सुख अतिसमीप आ जाते हैं। शास्त्रकार महर्षियों का कथनहै कि . . सील सत्तरोगहरं, सीलं आरूग्गकारणं परमं। सीलं दोहग्गहरं, सीलं सिवसुक्खदायारं॥१॥ भावार्थ - शील प्राणियों का रोग हरण करने वाला, शील आरोग्यता का उत्कृष्ट कारण, शील दौर्भाग्य का नाशक और शील मोक्षसुख का देने वाला होता है। . अतएव स्त्रियों को शील की रक्षा करने में अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। जो स्त्रियाँ शील की सुरक्षा न कर कुशील सेवन किया करती है, वे उभयलोक में अनेक दुःख देखा करती है। जिस स्त्री का चाल चलन अच्छा होता है, उसकी सब कोई प्रशंसा करते हैं। दुश्चरित्रा स्त्रियों का न कोई विश्वास करता है और न कोई उनसे प्रीति ही रखता है। . __आर्यिकाओं के इन सुबोध वचनों को सुनकर विजया ने • 'स्वपतिसन्तोष व्रत' लिया और वह भी कृष्णपक्ष में सर्वथा ब्रह्मचर्य धारण करने का नियम स्वीकार किया। पाठकगण! यद्यपि ये दोनों कौमारावस्था में ही हैं तो भी दोनों ने कितना दुर्द्धर व्रत ग्रहण किया है? यही इनके सर्वोत्तमोत्तमता के लक्षण है। भवितव्यता वशात् रूप, लावण्य और अवस्था समान होने से दोनों का विवाहसंयोग जोड़ा गया। माता पिताओं को दोनों
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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