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________________ १४३ श्री गुणानुरागकुलकम् सकल कर्मों का क्षय करके इन्द्र नरेन्द्रों का भी पूज्य बन जाता है। कहा है कि - अमराः किङ्करायन्ते, सिद्धयः सहसङ्गताः । समीपस्थायिनी संप - च्छीलालङ्कारशालिनाम् ॥१॥ __भावार्थ - ब्रह्मचर्य रूप अलङ्कारों से सुशोभित पुरुषों के देवता किङ्कर (नौकर) बन जाते हैं, सिद्धियाँ साथ में रहती है, और संपत्तियाँ भी समीप में बनी रहती है। । ___ जिन पुरुषों ने ब्रह्मचर्य का तिरस्कार किया उन्होंने जगत् में अपयश का डंका बजा दिया, गोत्र में स्याही का कलङ्क लगा दिया, चारित्र में जलाञ्जलि दे दी, अनेक गुणों के बगीचे में अग्नि लगा दी, समस्त विपत्तियों के आने के लिए संकेत स्थान बता दिया और मोक्षरूपी नगर के दरवाजे में मानो मजबूत किवाड़ लगा दिए। . इस प्रकार धर्माचार्य का सदुपदेश सुनकर विजयकुँवर ने स्वदारासन्तोषव्रत लिया और शुक्लपक्ष में तीनकरण और तीन योग से सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने का दुर्धर नियम धारण किया। . . उसी कौशाम्बी नगरी में 'धनावह' सेठ की 'धनश्री' नाम की स्त्री की कुक्षि से 'विजया' नामक पुत्री उत्पन्न हुई और वह अभ्यास के लायक अवस्था वाली होने पर आर्यिकाओं के पास विद्याभ्यास करने लगी। किसी समय प्रसंग प्राप्त आर्यिकाओं ने उपदेश देना शुरू किया कि - . हे बालिकाओं! संसार में स्त्रियों के लिए परम शोभा का कारण एक शीलवत ही है, जितनी शोभा बहुमूल्य रत्नजटित अलंङ्कारों से नहीं होती उतनी शोभा स्त्रियों के शील परिपालन से
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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