________________
१४०
श्री गुणानुरागकुलकम् भावार्थ - जीवित को अनिश्चित, ज्ञान, दर्शन, चारित्र को मोक्ष मार्ग और आयु का परिमित जानकर विषयादि भोगों से विरक्त होना चाहिए। अर्थात् जीवित स्थिर नहीं है, रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है और आयु प्रमाणयुक्त है, ऐसा समझकर बुद्धिमानों को अखंड ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए। . .
___ मनुष्यों के हृदय को सद्गुणों की और आकर्षित करने के लिए शास्त्रकारों ने अनित्यभावना १, अशरणभावना २, भवस्वरूप भावना, २, एकत्वभावना ४, अन्यत्वभावना ५, अशौचभावना ६, आश्रवभावना ७. संवरभावना, ८, निर्जराभावना ९, धर्मभावना १०, लोकस्वरूपभावना १२, और बोधिदुर्लभभावना १२, ये बारह. भावनाएँ बतलाई हैं।
अतएव विवेकरूपी सुवन को सिंचन करने के लिए नदी के समान, प्रशम सुख को जीवित रखने के लिए संजीवनी औषधि के समान, संसाररूपी समुद्र को तरने के लिए वृहन्नौका के समान, कामदेवरूपी दवानल को शान्त करने के लिए मेघसमूह के समान, चञ्चल इन्द्रियरूपी हरिणों को बाँधने के लिए जाल के समान, प्रबलकषायरूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र के, समान, और मोक्षमार्ग में ले जाने के लिए नहीं थकने वाली खच्चरी के समान जो भावनाएँ हैं, उनकी चिन्ता नित्य करनी चाहिए , क्योंकि अनित्यादि भावनाओं से वासितान्तः करण वाले मनुष्य के हृदय में विषयविकारादि दुर्गुण अवकाश नहीं पा सके। बौद्धशास्त्रकारों ने भी लिखा है कि 'अणिच्चा, दुक्खा, अणत्या' अर्थात् संसार अनित्य, अनेक दुःखों से पूरित और नाना अनर्थों का कारण है ऐसा विचार करने वाला पुरुष कभी विकारी और दुर्गुणी नहीं होता।