SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १३९ वाली स्त्रियाँ हैं उस अवस्था में किसी प्रकार विषय कीचड़ से उपलिप्त न होना वही वास्तविक त्यागी (ब्रह्मचारी) है। क्योंकि विरक्त मनुष्य संसार के भोगों को काले सर्प क्रे फण के समान विषम जानकर, इन्द्रियों के विषयों को विषमिश्रित अन्न के समान और स्त्रियों के पुदगलजन्य सुखों को तृण के समान असार जानकर, विषयाशक्ति को छोड़ करके मोक्ष को होता है । अतएव किंपाकफल के समान आदि ही में सुखद और अन्त में दु:खद जानकर मैथुन से विरक्त हो अखंड ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए। क्योंकि जलते हुए लोहस्तंभ का आलिंगन करना श्रेष्ठ है किन्तु अनेक अनर्थों का कारणभूत स्त्रीजघन का सेवन करना उत्तम नहीं है। जो लोग स्त्रियों के संभोग से कामज्वर को शान्त करना चाहते हैं वे घृत की आहुती से अग्नि को बुझाने की इच्छा करते हैं। चारित्र का प्राण और मोक्ष का मुख्यहेतुभूत ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले सत्पुरुष पूज्यों से भी सम्मानित होते हैं। अनेक क्लेशों और चुगलियों का घर 'नारद' केवल ब्रह्मचर्य से ही मोक्ष अधिकारी बनता है। ब्रह्मचर्य से ही समस्त गुण उज्जवल हो सबके आदरणीय होते हैं। अन्य दर्शनों का भी कहना है कि एक दिन ब्रह्मचर्य पालने से जो फल प्राप्त होता है वह हजार यज्ञों से भी नहीं होता। जिनमें ब्रह्मचर्य है और जो हमेशा सत्यवाणी बोला करते हैं उनको गङ्गा भी ढूँढा करती हैं। कितने एक लोग गंगा स्नान करने के लिए जाते हैं लेकिन गंगा उनसे अपने को पवित्र नहीं मानती, किन्तु वह पवित्र होने के लिए ब्रह्मचारी और सत्यवादियों का नित्य अन्वेषण किया करती है। अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया । विणियाद्दिज्ज भोगेसु, आउम्मि परिमियप्पणो ॥ १ ॥
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy