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________________ और श्री गुणानुरागकुलकम् शब्दार्थ - (पच्चंगुब्भडजुव्वणवंतीणं) प्रति अंगों में प्रकट है यौवन जिनका, · (सुरहिसारदेहाणं) सुगन्धमय है शरीर जिनका, (सव्वुत्तमरूववंतीणं) सबसे उत्तमरूपवाली (जुवईणं) युवतियों के (मज्झगओ) मध्य में रहा हुआ (जो) जो (मणवयकाएहिं ) मन, वचन और काया से (अजम्मबंभयारी) जन्म पर्यन्त ब्रह्मचारी रह (सील) शील को ( धरइ.) धारण करता है (सो) वह (पुरिसो) पुरुष (सव्वुत्तमुत्तमो ) सर्वोत्तमोत्तम कहा जाता है (पण) फिर वह (सव्वनजमणिजो ) सब लोगों के वंदन करने योग्य होता है। . : भावार्थ - युवावस्था, सुगन्धमय शरीर और सौन्दर्यसम्पन्न स्त्रियों के बीच में रहकर भी जो अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण करता है वह पुरुष 'सर्वोत्तमोत्तम' और सब का वंदनीय होता है। १३८ विवेचन - संसार में दान देना, परिषह सहना, तपस्या से शरीर को सुख देना, दया पालन करना, ध्यान आदि क्रियाओं का करना तो सुकर है परन्तु आजन्म ब्रह्मचर्य धारण करना अत्यन्त दुष्कर है। बड़े बड़े यौद्धा पुरुष भी कामदेव के अगाड़ी कायर बन जाते हैं तो इतर मनुष्यों की कथा ही क्या है? क्योंकि कामदेव बड़ा भारी योद्धा है यह तपस्वियों के हृदय में भी खलबलाहट किए बिना नहीं रहता। अर्थात् जिसके हृदय में इसने प्रवेश किया उसका फिर संयम रहना कठिन है। इससे भगवन्तो ने उन्हीं को त्यागी कहा कि जे य कंते पिए भोए, लद्धेविपिट्ठिकुव्व । साहीणे चइए भोए, से हु चाइ त्ति वुच्च ॥ भावार्थ - जो पुरुष मनोहर, मनोऽनुकूल और स्वाधीन प्राप्त भोगों को शुभभावना से छोड़ देता है अर्थात् जिनको जन्मभर में एक भी स्त्री नहीं मिलती, कदाचित् मिली तो मनोऽनुकूल नहीं, वे पुरुष दुःखी हो, बंधे हु घोड़े की तरह ब्रह्मचर्य पालें तो वास्तव में ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। किन्तु जिनको भोगों की सब सामग्री तैयार है और अपनी इच्छा के अनुसार चलने
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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