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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १४१ जिसके हृदय में आत्मचिन्तन (शुभभावना) नहीं है वह विषयाधीन हुए बिना नहीं रहता, इतना ही नहीं किन्तु वह विषयों के वशवर्ती ह्ये वीर्यशक्ति को नष्टकर, उभय लोक से भ्रष्ट हो जाता है । है अतः उत्तमोत्तम पद की प्राप्ति के लिए अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन कर निरन्तर ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करते रहना चाहिए । भरत चक्रवर्ती को आरीसाभवन में, कूर्मापत्र को गृहस्थावास में रहते हुए, गजसुकुमार को कार्योत्सर्ग प्रतिमा में स्थित रहते हुए, कपिल को पुष्पवाटिका में, प्रसन्नचन्द्रराजर्षि को काउस्सग्ग में रहते हुए, और मरूदेवी माता को हस्ती पर बैठे हुए इन्हीं अनित्यादि शुभ भावनाओं के चिन्तन करने से कैवल्यज्ञान उत्पन्न हुआ था। इन भावनाओं के चिन्तन से अनेक भव्य पूर्वकाल में मोक्ष के अधिकारी हुए और वर्तमानकाल में होते हैं तथा आगामी काल में होवेंगे। इसलिए सौन्दर्य सम्पन्न सुरभ्य तरूणस्त्रियों के मध्य में रहकर भी .विकारी नहीं बनना चाहिए। भगवान नेमिनाथ स्वामी, श्री जम्बूस्वामी, श्री कूर्मापुत्र आदि अनेक महात्मा दुर्जय कामदेव को पराजय कर सर्वोत्तमोत्तम पद को अलङ्कृत करने वाले हुए हैं। जिन्होंने ब्रह्मचर्यरूपी कर्पूरसुगन्धि से सारे संसार को सुवासित कर दिया और अनेक भव्यों को भवाम्बुधि से पार कर शाश्वत सुख का भागी बनाया । इत्यादि अनेक दृष्टान्त शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं, परन्तु यहाँ पर केवल एक विजय कुँवर और विजयाकुँवरी का आश्चर्यजनक दृष्टान्त ही लिखा जाता है। विजयकुँवर और विजयाकुँवरी -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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