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________________ १३५ श्री गुणानुरागकुलकम् वे 'उत्तमपुरुष' कहे जाते हैं। इस भेद में निर्दोष चारित्र को पालने वाले मुनिराज ही गिने जाते हैं। ___ जो लोग गृहस्थाश्रम छोड़ने पर भी सांसारिक विषयों के अभिलाषी, सब वस्तुओं के नक्षक, धनधान्यादि परिग्रह से युक्त, अब्रह्मचारी, मिथ्या उपदेशक, गृहस्थपरिचर्या (सेवा) कारक, रंगीन वस्त्र धारण कर और बुगला भगत बनकर लोगों को ठगने वाले, आधाकर्मी आहारादि लेने वाले और बैर विरोध, कलह, मात्सर्य आदि दुर्गुणों में क्रीड़ा करने वाले हैं, वे उत्तमों की पंक्ति में क्या मध्यमों की पंक्ति में भी नहीं हैं, किन्तु उनको अधर्मों की पंक्ति में गिनना चाहिए। क्योंकि उत्तम पुरुषों की गिनती में तो वे ही सत्पुरुष आ सकते हैं, जो कि पूर्वोक्त अधम कार्यों से रहित हों। अर्थात् - जो अमोही, ज्ञानी, ध्यानी, शान्त जितेन्द्रिय, त्यागी, विरागी, निस्पृही, शास्त्रोक्त, साधुक्रिया में तत्पर, विद्यावान्, विवेकसम्पन्न, मध्यस्थ, तत्त्वदृष्टि, भवोद्विग्न, अमत्सरी, सर्वजीवहितचिन्तक, सद्गुणानुरागी कलहोदीरणा रहित और संयम की उत्तरोत्तर खप करने वाले मुनि हों वे उत्तमपदालङ्कत हैं। ये उत्तम पुरुष स्वयं संसार समुद्र में तरते हैं, और भव्य जीवों को निःस्वार्थवृत्ति से तारते हैं। जो स्वयं तरने के लिए समर्थ नहीं है, वह दूसरों को कैसे तार सकता है? अतएव उत्तमपुरुष ही स्वयं तिरने के लिए और दूसरों को तारने के लिए समर्थ हैं। ६. जो उत्तमपुरुषों के और तीन लोक के ध्येय, पूज्य, माननीय, वन्दनीय, स्तवनीय, ईश्वरपदवाच्य, सर्वथा राग द्वेष रहित, केवल ज्ञान से लोकाऽलोक स्वभाव के प्रकाशक, प्रमाणयुक्त, स्याद्वादशैलीयुक्त - उत्पाद, व्यय और धोव्य - इन तीनों पदों का
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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