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________________ १३४ श्री गुणानुरागकुलकम् और विषयादि भोगों को किंपाकफल की तरह दुःखप्रद समझते हुए भी 'महापुरुषसेवितां प्रव्रज्यामध्यवसितुं न शक्नुवन्ति' महोत्तम पुरुषों के द्वारा सेवित पारमेश्वरी दीक्षा को स्वीकार करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते। परन्तु जैन शासन के प्रभावक, मुनिजनों के भक्त, साधु धर्म के पोषक बनकर दानशील तप भाव और परोपकारादि सद्गुणों से अलंकृत, सम्यक्त्व मूल-बारह व्रतों को निरतिचार पालन करते हैं, वे पुरुष 'मध्यम' हैं। ये लोग जिनेन्द्रधर्म को निराशीभाव से सेवन करते हैं और सब का हित चाहते हैं, किन्तु . किसी की भी हानि नहीं चाहते। इससे इस लोक में अनेक लोगों के प्रशंसनीय हो परलोक में उत्तम देव पद और मनुष्य पद प्राप्त करते ५. जो चार पुरुषार्थों में से केवल मोक्ष ही को परमार्थस्वरूप समझते हैं और मोक्षमाग को आराधना करने में ही कटिबद्ध रहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, मत्सर, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा आदि दुर्गुणों को छोड़कर परमार्थिक सद्गुणों में चित्त लगाकर, धन, धान्य, माल, खजाना, कुटुम्ब-परिवार को तुच्छ समझकर, भोग, तृष्णामय दृष्ट इन्द्रियों को सर्वथा. रोककर, तथा वैराग्य वासना से वासितान्तःकरण होकर परमपुरुषसेवित और सब दुःखों की निर्जरा की हेतभूत-पारमेश्वरी महोत्तम निर्दोष दीक्षा का सेवन करते हैं, अर्थात् चारित्रधर्म को स्वीकार करते हैं। शत्रु, मित्र, निन्दक, पूजक, मणि, कांचन, सज्जन, दुर्जन, मान, अपमान, गम्य, अगम्य आदि सब के ऊपर समानभाव रखते हैं और सब जीवों को हितकारक उपदेश देते हैं। गृहस्थों के परिचय से विरक्त, आरम्भ से रहित, सत्योपदेशक, अस्तेयी, ब्रह्मचारी और निष्परिग्रही होते हैं,
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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