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श्री गुणानुरागकुलकम्
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३. जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम की आराधना सांसारिक सुखों के वास्ते करते हैं, मोक्ष की निन्दा और प्रशंसा नहीं करते है, जैसे 'नालिकेरद्वीप' निवासी मनुष्य, धान्य के ऊगर रुचि और अरुचि नहीं लाते किन्तु मध्यस्थभाव रखते हैं, उसी प्रकार जो मोक्ष के विषय में अभिलाष और अनभिलाष नहीं रखते हुए केवल इस लोक में ऋद्धि सम्पन्न मनुष्यों को देखकर धर्मसाधन में प्रवृत्त होते हैं और मन में चाहते हैं कि हमको रूप, सौभाग्य, विभव, विलास, पुत्र, पौत्रादि परिवार, तथा समस्त पृथ्वीमंडल का राज्य, आदि दानशील तप और भावरूप धर्मकरणी के प्रभाव से जन्मान्तर (दूसरे जन्म) में मिले । अर्थात् सुखसमृद्धि के लिए ही जो तीर्थसेवा, गुरुभक्ति, परोपकार और दुष्कर क्रिया करते हैं और लोकविरुद्ध कार्यों का त्यागकर धर्मक्रिया में प्रवृत्त होते हैं, तथा पाप से डरते हैं, और सुगति तथा कुगति को मानते हैं; वे 'विमध्यम' है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य • और शूद्र ये चार वर्ण पूर्वोक्त कार्यों के करने से विमध्यय पुरुषों में गिने जाते हैं।
जो सम्यग्दृष्टि, चक्रवर्ती प्रमुखों के विभव और विषयादिसुखभोग के अभिलाषी हो निदान करते हैं वे भी इसी भेद में गिन जाते हैं। ये लोग धर्मार्थी होने पर भी यथार्थवक्ता गुरु के बिनां धर्मस्वरूप को नहीं पा सकते।
४. जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इन चार पुरुषार्थों को मानते हैं, परन्तु मोक्ष को परमार्थ और परमतत्त्व समझते हैं। तथापि हीनसत्त्व और कालानुसार पुत्र कलत्रादि के मोह ममत्त्व को नहीं छोड़ सकने के कारण धर्म, अर्थ तथा काम; इन तीनों ही वर्ग की आराधना यथासमय परस्पर बाधारहित करते रहते हैं। संसारस्वरूप