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__ श्री गुणानुरागकुलकम् ज्ञान गणधरों को देने वाले, निर्विकार, निर्बाध, परस्पर विरोधादि दोषरहित, शासन-नायक, शिवसुखदायक, परमकृपालु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न, कामधेनु और कामकुम्भ से भी अधिक दान देने वाले, धर्मचक्रवर्ति तीर्थंकर - तीर्थस्थापक सेवा मात्र से मोक्ष के फल देने वाले होते हैं, वे 'उत्तमोत्तम' पद विभूषित हैं।
जिनका संसार में जन्म होने से लोगों के हृदय में स्बुद्धि पैदा होती है, सब का दयालु स्वभाव होता है, वैर, विरोध, ईर्ष्या, लूट खसोट, आदि दुर्गुण मिटते हैं, अनुकूल वर्षा होती है, दुर्भिक्ष का . नाश और जल, फूल, फल; आदि में मधुरता बढ़ती है, त्रिलोकव्यापी उद्योत होता है, लोगों में धार्मिक भावना बढ़ती है, स्व परिवार सहित इन्द्रोंका गमनाऽऽगमन होता है। बहुत कहाँ तक कहा जाए जिनके. समान रूप, सौभाग्य, लावण्य, भाग्योदय, गाम्भीर्य, धैर्य, दाक्षिण्य, सदाचार, गुणानुराग, गुणसमूह, निर्ममता, समताभाव, निर्दोषीपन, सहनशीलता, स्वामित्व, जितेन्द्रियत्व, अतिशय, निर्भयता, आदि उत्तमोत्तम सद्गुण दूसरे संसारी किसी जीव में नहीं हों, वे सर्वज्ञ दयासागर जगज्जीव - हितैषी 'उत्तमोत्तम' पुरुष कहे जाते हैं। __महानुभाव! इस प्रकार ग्रन्थान्तरों में पुरुषों के छः विभाग किए गए हैं। शास्त्रों में योग्याऽ योग्य पुरुषों का बहुत स्वरूप दिखलाया गया है, यहाँ तो बिलकुल संक्षेपस्वरूप लिखा है। इस स्वरूप को अवलोकन और मनन कर यह विचार करना चाहिए कि पूर्वोक्त भेदों में से मैं किस पंक्ति में हूं? मेरे में इनमें से कौन-कौन लक्षण पाए जाते हैं? ऐसा विचार करने पर यदि मालूम हो कि अब तक तो मैं नीच-पंक्ति में ही हूँ तो ऊँची पंक्ति में जाने का प्रयत्न करना चाहिए, और यदि यह मालूम हो कि मैं ऊँचे नम्बर की पंक्ति