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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १३१ किए हैं। वे इस प्रकार हैं कि - अधमधाम १, अधम २, विमध्यम ३, मध्यम ४, उत्तम ५ और उत्तमोत्तम ६ । १. जो लोग धर्मकर्म से रहित हैं, जिन्हें परलोक संबंधी दुर्गतियों का भय नहीं है, निरन्तर क्रूरकर्म और पापों का आचरण किया करते हैं, अधर्मकार्यों में आनन्द मानते हैं, लोगों को अनेक उद्वेग उपजाया करते हैं, देवगुरु और धर्म की निन्दा किया करते हैं, दूसरे मनुष्यों को भी नित्य पापोपदेश दिया करते हैं, जिनके हृदय में दया - धर्म का अंकुर नहीं ऊगता अर्थात् जो महानिर्दय परिणामी होते हैं, अगर किसी तरह कुछ द्रव्य प्राप्त भी हुआ तो उसे मदिरा, मांसभक्षण, परस्त्रीगमन आदि अनेक कुकार्य करने में खर्च करते हैं, वे लोग 'अधमाधम' हैं। २. जो महानुभाव परलोक से पराङ्मुख हो इन्द्रियों के . विषयसुख के अभिलाषी बने रहते हैं, अर्थ और काम, इन दो पुरुषार्थों को ही उपार्जन करने में कटिबद्ध हैं, संसारवृद्धि का जिनको कुछ भी भय नहीं है, जन्म मरण संबंधी क्लेशों का जिन्हें ज्ञान नहीं है, जो दूसरों के दुःख को नहीं जानते, जो कर्मों के अशुभ फलों दुःख देखते हुए भी सुख मानते हैं, जो पशुओं की तरह यथारुचि खाते, पीते, बोलते और कुकर्म करते हैं, लोकनिन्दा का भी जिनको डर नहीं है, जो धार्मिक जनों की मश्करी (उपहास्य) करते हैं, मोक्षमार्ग की निन्दा करते हैं, धर्मशास्त्रों की अवहेलना (अनादर) करते हैं, और कुगुरु कुदेव, कुधर्म की कथाओं के ऊपर श्रद्धा रखते हैं। जो लोग सदाचारियों की निन्दा हास्य कर, कहते हैं कि परलोक किसने देखा? कौन वहाँ से आया?, किसने जीव, अजीव -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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