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________________ १३० श्री गुणानुरागकुलकम् 'श्रीजिनहर्षगणिजी' महाराज फरमाते हैं कि - 'तेऽ वि य न निंदमिज्जा, किन्तु दया तेसु कायव्वा' अर्थात् - अधम और अधमादम मनुष्य भी निन्दनीय नहीं है। क्योंकि संसार में मनुष्य पूर्वोपार्जित । पापकर्म के उदय से पापकर्म करने में ही लगे रहते हैं, और नरकप्रायोग्य अशुभयोगों में विलास किया करते हैं। इसलिए उनकी निन्दा नहीं करना चाहिए, किन्तु उन पर भी दयालु स्वभाव रखना चाहिए। __अधर्मी मनुष्यों को देखकर धर्मात्माओं को यह विचार करना. चाहिए कि - ये जीव विचारे भारी कर्मा होने से धर्मरहित हुए हैं, . यदि किसी तरह ये धर्मानुरागी बनें तो अच्छा है। ऐसी शुभ भावना रख, मधुर वचनों से समझाते रहना चाहिए; परन्तु पापिष्ट, दुष्ट, नीच आदि शब्दों से व्यवहार करना ठीक नहीं। मधुर वचनों से तो किसी न किसी समय ये लोग धर्म के सन्मुख हो सकेंगे, किन्तु निन्दा करने से कभी नहीं समझ सकते। पूर्वाचार्यों ने मधुर वचनों से ही अनेक महानुभावों को धर्मानुरागी बनाये हैं। जो लोग वचनों में मधुरता नहीं रखते, उनके वचन सर्वमान्य नहीं हो सकते। श्री जिनेश्वरों की वाणी दयालु स्वभाव से ही सर्वमान्य मानी जाती है; क्योंकि - जिनवाणी अत्यन्त मधुर वचन सम्पन्न होती है, उनको प्रीतिपूर्वक हितकारक समझकर, अधमाधम श्रेणी के मनुष्य भी आचरण (मान्य) करते हैं। अतएव बुद्धिमानों को दयालुस्वभाव रख, मधुर वचनों से ही अधमजीवों को समझाते रहना चाहिए। 'षट्पुरुषचरित्र' में श्री क्षेमङ्करगणिजी ने पुरुष - धर्म सब में समान रहने पर भी पूर्वभवोपार्जित शुभाऽशुभ कर्म के परिणाम से और चार पुरुषार्थों को साधन करने के भेद से मनुष्यों के छः विभाग
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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