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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् "परदोसं निराकिच्चा, न विरुज्झेज्ज केण वि 'मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥" १२७ भावाथ मन, वचन और काया से परदोषों को अलग कर किसी परदोष बोलने और विरोधभाव रखने के साथ वैर विरोध न करो। क्योंकि से अन्त में दुर्गति का भाजन बनना पड़ता है। अत एवं मन से किसी की बुराई न करो, वचन से किसी की निन्दा, या दोषारोप न करो और काया से सर्वत्र शांतिभाव फैलाने की कोशिश करो, परन्तु जिससे कषायाग्नि बढ़े, वैसी प्रवृत्ति न करो। परदोष निकालता हुआ कोई भी उच्चदशा को प्राप्त नहीं हुआ किन्तु अधमदशा के पात्र तो करोड़ों हुए हैं। जो सब के साथ मैत्री भाव रखते हैं, यथाशक्ति परोपकार करते हैं और स्वप्न में भी परदोषों पर दृष्टि नहीं डालते वे सबके पूज्य होकर महोत्तम पद विलासी बनते हैं। ग्रन्थकार पुरुषों के भेद दिखाकर उनकी निन्दा करने का निषेध करते हैं - चहा पसंसिणिज्जा, पुरिसा सव्युत्तमुत्तमा लोए । उत्तम उत्तम उत्तम, मज्झिमभावा व सव्वेसिं ॥ १३॥ जे अहम अहम - अहमा, गुरुकम्मा धम्मवज्जिया पुरिसा तेऽवि य न निंदणिज्जा, किंतु तेसु दया कायव्वा ॥ १४॥ चतुर्द्धा प्रशंसनीयाः, पुरुषाः सर्वोत्तमोत्तमा लोके । उत्तमोत्तमता उत्तमा, मध्यमभावश्च सर्वेषाम् ॥
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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