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________________ १२६ श्री गुणानुरागकुलकम् किसी में कुछ ज्ञान पाया भी जाता है तो वह मात्सर्य से अच्छादित होने से उसका प्रभाव नहीं बढ़ता। क्योंकि जैन शास्त्रानुसार सूज्ञान वही है जिससे वैर विरोध का सर्वथा नाश होकर मैत्री भावना दिन दूनी बढ़ती जाए। यदि ज्ञान प्राप्त होने पर भी असभ्य आदतें न मिटीं तो वह ज्ञान नहीं किन्तु अज्ञान ही है। उत्तम ज्ञान के उदय से उत्तम उत्तम स्गुण प्रगट होते हैं। कहा भी है कि - .. ज्ञान उदय जिनके घट अन्दर, ज्योति जगी मति होत न मैली। बाहिर दृष्टि मिटी तिन के हिय, आतमध्यान कला विधि फैली॥ जे जड़ चेतन भिन्न लखे, सुविवेक लिए परखे गुण थैली। ते जग में परमारथ जानि, . . गहे रुचि मानि अध्यातम शैली ॥१॥ भावार्थ - जिनके हृदय में असली ज्ञान का उदय होता है उनके हृदयभवन में परापवाद, परदोषनिरीक्षण आदि दोषों से परिवेष्टित - मलिन मति का नाश हो कर सुबुद्धि और दिव्यज्ञानज्योति का प्रकाश होता है, बाह्यदृष्टि मिटकर सर्व दोष विनाशिका - अध्यात्मकला की विधि विस्तृत होती है, ज्ञानोदय से मनुष्य जड़ और चेतन की भिन्नता दिखाने वाले सद्विवेक को प्राप्त करज्ञान दर्शन चारित्रादि स्गुणों की थैली परीक्षापूर्वक ग्रहण करते हैं संसार में परमार्थ (तत्त्व) वस्तु को जानकर शुद्ध रुचि से अध्यात्म शैली को प्राप्त करते हैं। इसलिए महानुभावो!
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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