________________
श्री गुणांनुरागकुलकम्
१२५ __ भावार्थ - क्रियाहीन जो ज्ञान और ज्ञानहीन जो क्रिया, इन दोनों के परस्पर सूर्य और खद्योत (पतंगिया) जितना अन्तर जानना चाहिए। ज्ञान तो सूर्य के समान है, और क्रिया खद्योत के समान है। क्रिया देश से आराधक,
और ज्ञान सर्वाराधक है। ज्ञानरहित क्रिया करने वाला देश से आराधक है, ऐसा ‘भगवतिसूत्र' में कहा है। - ज्ञानसहित क्रिया और क्रियासंयुत ज्ञान यही आत्मशुद्धि होने
का और तत्त्वज्ञ बनने का मुख्य कारण है। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया के सेवन से अन्तरङ्ग शत्रुओं का अभाव होकर महोत्तम पद प्राप्त होता है और महोत्तम शान्तगुण प्रगट होकर सर्वमतावलम्बियों के ऊपर समभाव होता है। ज्ञान सम्पादन और क्रिया करने का प्रयोजन केवल इतना ही है कि अपनी आत्मा कषाय शत्रुओं से मुक्त हो सब के साथ मैत्रीभाव रक्खे, किन्तु किसी के दोषों पर न ताके।
क्रिया का, या व्याख्यान आदि का बाह्याडम्बर दिखाने मात्र से ही सत्तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, जब तक उपशम भाव नहीं हुआ तब तक सब ढोंगमात्र है और जहाँ ढोंग है वहाँ मुक्तिमार्ग नहीं है। अतएव प्रत्येक धर्मानुष्ठानों को सफल करने के लिए प्रथम ज्ञान संपादन तदन्तर क्रिया (शान्त गुण) में लवलीन होना चाहिए। यहाँ पर ज्ञान और अज्ञान का इतना स्वरूप दिखाने का हेतु यही है कि ..लोग अज्ञानजन्य दोषों को ज्ञान से समझ कर, परदोष प्रदर्शन और निन्दा करने का लाभाऽ लाभ जानकर, महत्व प्राप्त करने के लिए अनीतिमय दोषों का सर्वथा त्याग करें और जिनेन्द्र भगवान् की उत्तम शिक्षाओं का आचरण करें। ___ वर्तमान जैन जाति में अवनति दशा होने का मुख्य कारण यही है कि उसमें सूज्ञान और उत्तम शिक्षण का अभाव है, और कहीं