________________
१२४
श्री गुणानुरागकुलकम् शय्यं भवसूरिजी महाराज ने लिखा है कि- 'पढमं नाणं तओ दया' प्रथम जीवादि पदार्थों का ज्ञान करो, क्योंकि परिपूर्ण ज्ञान हुए बिना यथार्थ दयादानादि धर्म (व्यवहार) नहीं सध सकता। जितना ज्ञान होगा उतनी ही शुद्ध धर्म में प्रवृत्ति अधिक होगी। ज्ञान के बिना उपदेशादि का देना और तपस्यादि करना सार्थक नहीं है । सूत्रकारों ने तो यहाँ तक लिखा है कि वस्तुतत्व को जाने बिना और वचनविभक्तिकुशल हुए बिना जितना धर्मोपदेश देना है वह असत्य मिश्रित होने से भवभ्रमण का ही हेतु है, इससे ज्ञानसहित धर्मोपदेशादि देना और क्रियानुष्ठान करना सफल और अनन्त सुखदायक है।
-
बहुत से अज्ञ जीव क्रियाडम्बर पर ही रंजित हो समझते हैं कि बस दया पालना, तपस्या वगैरह करना, यही मोक्षमार्ग है । परन्तु शान्तस्वभाव से विचार करना चाहिए कि अकेली क्रिया उसका यथार्थ स्वरूप जाने बिना उचित फलदायक नहीं हो सकती। जैसे - शिल्पकला को जाने बिना गृह, मन्दिर आदि बनाना, चित्रकला को सीखे बिना चित्रादि का बनाना और व्यापारादिभावनिपुण हुए बिना व्यापार वगैरह का करना शोभाजनक और फलदायक नहीं होता। जो जिस कला में निपुणता रखता होगा वही उसका फल प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं। उसी तरह धार्मिक क्रियाओं में शोभा और उत्तम फल को ही वही पा सकता है जो उन क्रियाओं के यथार्थ उद्देश्यों को समझता है। इससे सभी अनुष्टान ज्ञानपूर्वक ही महाफल देने वाले हैं। बहुश्रुत हरिभद्रसूरिजी महाराज ने लिखा है कि -
क्रियाहीनस्य यूज्ञानं, ज्ञानहीनस्य या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥ १ ॥