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ये अधमा अधमाधमा, गुरुकर्माणो धर्मवर्जिताः पुरुषाः ॥ तेऽपि च न निन्दनीयाः, किन्तु दया तेषु कर्त्तव्या ॥ १४ ॥
शब्दार्थ - (लोए) संसार में (सव्वुत्तमुत्तमा) सर्वोत्तमोत्तम (उत्तम - उत्तम) उत्तमोत्तम २, (उत्तम), उत्तम ३, (य) और (मज्झिमभावा) मध्यमभाव ४, (सव्वेसिं) सब पुरुषों के (चउहा ) चार प्रकार के होते हैं । (पुरिसा) चारों भेद वाले पुरुष (पसंसणिज्जा) प्रशंसा करने योग्य हैं। (ख) और (जे) जो (अहम) अधम १, और (अहम अहमा) अधमाधम २, (गुरुकम्मा) बहुल कर्मी, (धम्मवज्जिया) धर्ममार्ग से रहित ये दो प्रकार के (पुरिसा) पुरुष हैं, (तेऽवि ) वे भी ( निंदणिजा) निन्दा करने योग्य (न) नहीं हैं (किंतु ) तो क्या ? (तेसु) उन पर भी (दया) दयालु परिणाम (कायव्वां) रखना चाहिए। भावार्थ - प्रथम के चार भेद वालों की प्रशंसा करना और दूसरे दो भेदवालों की प्रशंसा न करते बने तो उनकी निन्दा तो अवश्य छोड़ देना चाहिए।
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श्री गुणानुरागकुलकम्
विवेचन - संसार में अपने शुभाशुभ कर्म के संयोग से प्राणीमात्र को उत्तम, मध्यम और अधम दशा प्राप्त होती है और उसी के अनुसार उनकी मनः परिणति शुद्धाऽशुद्ध हुआ करती है। जो लोग परिनिन्दा, परदोषारोप, परसमृद्धि में आमर्ष, कपट, निर्दय परिणाम और अभिमान आदि दोषों का आचरण करते हैं, उनको एक-एक योनी की अपेक्षा अनेक बार अधम दशा का अनुभव करना पड़ता है। जो महानुभाव दोषों को सर्वथा छोड़कर सरलता, निष्कपट, दया, दाक्षिण्यता आदि सद्गुणों का अवलम्बन करते हैं वे यथायोग्य उत्तम, मध्यम अवस्था को पाते हैं। यह बात तो निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि जो जैसा स्वभाव रखेगा वह उसी के अनुसार