________________
११२
श्री गुणानुरागकुलकम् _ 'निष्पुण्यक' ने धन की आशा से देवरमण यक्षराज के मन्दिर में बैठकर जब मरना चाहा तब यक्षराज ने प्रत्यक्ष होकर कहा कि - अरे! तेरे भाग्य में धन नहीं है, व्यर्थ ही यहाँ पर क्यों प्राणमुक्त होता है? निष्पुण्यक ने जवाब दिया कि यदि भाग्य में ही धन मिलना होता तो आपके पास मुझे आने की क्या आवश्यकता थी? अतः मुझे धन दीजिए, नहीं तो आप ही के ऊपर प्राण त्याग कर दूंगा। यक्ष ने खिन्न होकर अन्त में कहा कि - अरे मूर्ख! यहाँ पर निरन्तर प्रातः . समय स्वर्णमय मयूर आकर नृत्य करेगा, और एक एक स्वर्णमय पींछ (पक्ष) नित्य डालेगा उसको तूं ले लेना। ऐसा कहकर यक्ष तो अदृश्य हो गया। तदनन्तर निष्पुण्यक, यक्ष के कथनानुसार नित्यः एक एक पाँख लेने लगा। ऐसे बहुत दिन व्यतीत होने पर लोभ का ' पूर बढ़ने से दुर्भाग्यवश निष्पुण्यक सोचने लगा कि यहाँ कहाँ तक बैठा रहूं, कल मयूर आवे तो पकड़ लूँ जिससे मेरा दरिद्र दूर हो जावे। ऐसा मानसिक विचार करके जब प्रातःकाल मयूर नाचने को आया कि झट उसको पकड़ने के लिए दौड़ा, इतने में वह मयूर काकरूप होकर निष्पुण्यक के मस्तक पर चञ्चप्रहार देकर उड़ ग़या,
और जो पांखे इकट्ठी की थीं वे सब कौआ की पांखे हो गईं, जिससे वह निष्पुण्यक अत्यन्त दुःखी हो पश्चात्ताप का पात्र बना और लोगों की सेवा चाकरी कर अपना निर्वाह चलाने लगा, तथा संसार का भाजन बना।
इस कथा का तात्पर्य यह है कि बुद्धिमानों को सन्तोषरूप महागुण को धारण करना चाहिए, और लोभदशा को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सन्तोष और शान्त गुण के प्रभाव से ही मौनीन्द्र और योगिराज जंगलवास कर, मन वचन और काया की चपलता