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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ११३ का निरोध, तथा सांसारिक वासनाओं का प्रपञ्च छोड़कर अनन्त सुखानुभव करते हैं। सन्तोष के बल से ही सारा संसार वशीभूत होता है। शरीरारोग्यता का असाधारण औषध, दरिद्रता का वैरी, मोहराज के सैन्य को चूर्ण करने वाला, कामरूपी हस्ती का प्रहारकारक और द्वेषरूपी उन्मत्त हाथी को भक्षण करने वाला सिंह के समान एक सन्तोष ही है। अतएव जिसको सन्तोष प्राप्त हुआ है उसको तीन लोक का साम्राज्य हस्तगत समझना चाहिए, जो बात असन्तोषी को सैकड़ों उपाय से सिद्ध नहीं होती, वह सन्तोषी को बिना परिश्रम ही सिद्ध हो जाती है। इसलिए तीन प्रकार की 'एषणाओं की कनिष्ठ जाल से लपेटी हुई लोभदशा को घोर संसारवर्द्धिका और अनेक कष्टदायिका समझकर सर्वथा त्याग देना ही चाहिए, और सन्तोष गुण का आश्रय लेकर अनेक सद्गुण और अनन्त सुख होने का सन्मार्ग पकड़ना चाहिए। कषायों का त्याग अवश्य करना चाहिए - कषायों के प्रभाव से ही यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करता चला आया है और नानागतियों में दुःख सहता रहता है। संसार में जो बध बन्धन आदि दुःख देखे जाते हैं, वे सब "लोके में वितताऽस्तु कीर्त्तिरमला लोकैषणेत्युच्यते; सच्छिष्यात्मजसंस्पृहा निगदिता पुत्रैषणा कोविदैः । वित्तं में विपुलं भवेदिति हि तु ख्याताऽस्ति वित्तैषणा, ता ता अपहाय मुक्तिपथिकः सन्नयासमालम्बते " ॥ १ ॥
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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