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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १११ भावार्थ - जगत में गौ, हाथी, घोड़ा आदि अनेक प्रकार का धन विद्यमान है और रत्नों की खानियाँ भी विद्यमान है, परन्तु वह सब धन चिन्ताजाल से आच्छादित होने से तृप्ति का कारण नहीं है, किन्तु लाभ के अनुसार उत्तरोत्तर तृष्णा का वर्द्धक है। इसलिए जब हृदय में सन्तोष. महाधन संग्रहीत होता है तब बाह्य सब धन धूल के समान जान पड़ता है। अतएव लोभदशा को समस्त उपाधियों का कारण समझकर छोड़ना ही अत्युत्तम और अनेक स्गुणों का हेतु है । कारण यह है कि तृष्णा का उदर तो दुष्पूर है उसका पूरना बहुत ही कठिन है । उत्तराध्ययन सूत्र के ८ वें अध्ययन में लिखा है कि - कसिणंपि जो इमलोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणा वि से न संतूसे इइ दुप्पूरए इमे आया ॥ १६ ॥ भावार्थ - 'कपिलमुनि' विचार करते हैं कि यदि किसी पुरुष को समस्त मनुष्यलोक और इन्द्रलोक का भी सम्पूर्ण राज्य दिया जाय, तो भी उतने से वह सन्तोष को नहीं पाता, इससे तृष्णा दुष्पूर्य है अर्थात् इसकी पूर्ति के लिए संतोष के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं। इससे सन्तोष गुण का ही हर एक प्राणी को अवलम्बन करना चाहिए, क्योंकि सन्तोष के आगे इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र और चक्रवर्ती की समृद्धियाँ भी तुच्छ है, सन्तोष में जो सुख का अनुभव होता है . वह इन्द्रों को भी प्राप्त नहीं होता, संतोषी पुरुष मान पूजा कीर्ति आदि की इच्छा नहीं रखता, और सर्वत्र निस्पृहभाव से धर्मानुष्ठान करता है। जो लोग सन्तोष नहीं रखते, और हमेशा लोभ के पंजे में फंसे रहते हैं, वे 'निष्पुण्यक' की तरह महादुःखी होकर और पश्चात्ताप करते हुए सबके दास बनते हैं।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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