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श्री गुणानुरागकुलकम् लोभाम्बुधि में अनेक राजा, महाराज, सेठ, साहूकार, देव दानव, इन्द्र आदि हाय हाय करते तना चुके हैं किन्तु तो भी तृष्णा डाकिनी को सन्तोष नहीं हुआ। स्वर्णमृग के लोभ से रामचन्द्रजी अनेक दुःखों के पात्र बने थे - इसी पर एक कवि ने कहा है - "असम्भवं हैममृगस्य जन्म, तथापि रामो लुलुभे मृगाय। प्रायः समापन्नविपत्तिकाले, धियोऽपि पुंसां मलिनी भवन्ति ॥१॥".
भावार्थ - सुवर्ण का मृग होना असंभव है, यह जानते हुए भी रामचन्द्रजी मायामय मृग के लिए लोभी हुए। प्रायः करके जब विपत्ति आने । वाली होती है तब लोभवश मनुष्यों की बुद्धि भी मलिन हो जाती है।
स्त्रियों के लोभ से रावण और धवल सेठ, धन के लोभ से. मम्मण और सागर सेठ, सातवें खएड के लोभ से 'ब्रह्मदत्त' चक्रवर्ती आदि अनेक महानुभाव संसार में नाना कदर्थनाएँ देख कर नरक कुण्ड के अतिथि बने हैं। अतः लोभ करना बहुत ही खराब है और अनेक दुर्गणों का स्थान तथा संपत्तियों का नाशक है। जब तक सन्तोष महागुण का अवलम्बन नहीं लिया जावे तब तक लोभदावानल शान्त नहीं होता। संसार में प्राणीमात्र को खाते, पीते, भोग करते और धन इकट्ठा करते अनन्त समय बीत गया हैं परन्तु उससे हाल तक किंचिन्मात्र तृप्ति नहीं हुई और न सन्तोष लाये बिना तृप्ति हो सकेगी। क्योंकि सन्तोष एक ऐसा सद्गुण है, जिसके आगे तृष्णा का वेग बढ़ ही नहीं सकता, कहा भी है कि -
गोधन गजधन वाजिंधन, अरु रत्न की खान। जब आवत संतोष धन, सब धन धूलि समान॥