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श्री गुणानुरागकुलकम्
५०९ भी लोभाम्बुधि का तो पार नहीं आ सकता। सर्वज्ञ भगवन्तों ने सूत्रों के द्वारा निरूपण किया है कि - . सुवण्णरूप्यस्स य पवव्या भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स त तेहिं किंचि; इच्छा हु आगाससमा अणंतिया॥ - भावार्थ - एक लक्ष भोजन प्रमाण सुमेरू पर्वत के बराबर स्वर्णमय और रूप्यमय असंख्यात पर्वत भी प्राप्त हो जाए तो भी लोभी को उससे लवलेश भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। जैसे आकाणा अन्त रहित है, वैसे इच्छा भी अन्त रहित है।
जैसे किसी मनुष्य को 'सन्निपात' हो जाता है तब वह अपने स्वभाव को भूलकर अनेक चेष्टा करने लगता है। उसी तरह लोभी मनुष्य भी नाना चेष्टाओं के चक्र में घूमने लग जाता है, और हिंसा, चोरी, झूठ, विश्वासघात आदि कुकर्मों से लोभ का खड्डा पूरा करने में उद्यत बना रहता है, परन्तु तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती। एक कवीश्वर ने लिखा है कि -
जो दश बीस पचास भये, शत होत हजारन चाह चगेगी। लाख करोड अर्ब खर्व भये, पृथ्वीपति होनकी चाह थगेगी॥ स्वर्ग पाताल को राज कियो, तृष्णा अति से अति लाय लगेगी। 'सुन्दर' एक सन्तोष बिना, शठ! तेरि तो भूख कदी न भगेगी ॥१॥ तीनोंहि लोक में अहार कियो, अरु सर्व समुद्र पीयो है पानी।
और जठे तठ ताकत बोलत, काढ़त आँख डराबत प्रानी। दाँत देखावत जीभ हलावत, ताहिते मैं तोय डाकन जानी।
खात भये कितनेई दिन, हे तृसना! अजहू न अघानी ॥३॥ १ जहाँ तहाँ; २ अब भी; ३ तृप्त हुई।