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________________ ९६ श्री गुणानुरागकुलकम् हुआ कि यह तो उसकी समान या वही सुविद्या जान पड़ती है, पर जगत सेठ की पुत्री बनती है, वह क्यों कर होगी ? पर हाँ, एक बात अवश्य है कि इसकी अवस्था सुविद्या से अवश्य मिलती है और जगत सेठ की अवस्था तो इसके बेटे के बरोबर ज्ञात होती है। बेटी बाप से छोटी होना चाहिये व माता की-सी सूरत वाली। यह कदापि इसकी पुत्री नहीं है। इसमें अवश्य कुछ न कुछ भेद है। राजा इसी सोच विचार में था कि सुविद्या राजा के चरणों में गिर पड़ी और कहने लगी कि आप संदेह न करिये। मैं जगत सेठ की पुत्री नहीं हूँ। मैं तो आपकी ही दासी हूँ और यह सब अपने वचन का परिचय दिखाने और सत्य करने को किया है। यह वही लकड़हारा है और मैं वही रानी सुविद्या हूँ। अपराध इस दासी का क्षमा कीजिए और अपनी सेवा में रखिये। इतने दिन मैंने आपके विरह में बड़े-बड़े कष्ट से नीति और धर्म को पाल कर काटे हैं। राजा ने यह सुनकर मन में बहत लज्जा को स्थान दिया। रानी को घर ले गया और उस जगत सेठ को अपना आधा राज्य देकर बराबरी का बना लिया। ___ अंत में राजा, रानी और वह जगत सेठ (लकड़हारा) सकुटुम्ब पारमेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर और उसे निर्दोष पाल कर सदा शाश्वत सुख विलासी बने। ___पाठकों ! जिस प्रकार रानी सुविध्या ने अपना और अपने सहवासियों का सुधार किया और उन्हें सद्गुणी उभयलोक में सुखी बना दिये। इसी प्रकार एक सद्गुणी स्त्री, अनेक परिचय में आने वाले व्यक्तियों (स्त्री-पुरुषों) का सुधार बड़ी आसानी (सुगमता) से कर सकती है। यह बात निःसंदेह समझना चाहिये।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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