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श्री गुणानुरागकुलकम् तुरंत दोनों की सगाई करके चट्ट विवाह करा दिया, क्योंकि अब तो बहुत से अपनी-अपनी बेटी देने को चाहते थे। जब इसका पिता लकड़हारा परदेश से उलट कर आया और पहले से भी अधिक लाभ हुआ, तब तो इन्होने हुण्डी की कोठियाँ खोल दीं, दूसरे नगरों में आढ़त डाली और सेठ बन बैठे और ये सुविद्या के सुप्रबंध से जगत् सेठ की पदवी भी पा गए।
सुविद्या ने देखा कि अब अवसर है कि राजा को अपने वचन का परिचय दिखाऊँ कि मेरा कहना सत्य था, या असत्य। यह विचार वह अपने धर्मपिता से बोली कि अब आप जगह सेठ कहलाते हो. और देश-देश की अलभ्य वस्तुएँ आपके यहाँ आती हैं। कुछ अच्छी-अच्छी वस्तुएँ लेकर राजा को भेंट करना चाहिये। अपना यह धर्म है कि अपने देश के राजा को अपने से प्रसन्न रक्खें। अब तक तो हम लोग किसी गिनती में न थे, पर अब तो बड़े हो गए. न जाने, किस समय काम पड़े। इस कारण आप अमुक-अमुक कामदार से मिलो, फिर पीछे उनके द्वारा आपका मिलाप राजा से हो जायगा। . यह तो रानी थी, सब रीति भाँति राजद्वार की जानती थी। इसके पिता ने कहा कि, मैं क्या जानें इन बातों को। मैं तो लकड़हारा हूँ। नहीं जानता कि राजा से कैसे मिलते हैं ? रानी ने उसको इस प्रकार की सब बातें समझा-बुझाकर उसे राजा के पास भेज दिया। जिस प्रकार कि सुविधा ने पेश्तर इसको बताया था, यह उसी प्रकार राजा से मिला और घर आकर सब वृत्तांत कहा। थोड़े दिन पीछे सुविद्या ने इसे फिर भेजा। इसी प्रकार दो-चार मर्तवा मिला - भेंटी हुई, जिसमें यह सब बात जान गया और राजा से अधिक मेल-मिलाप हो गया। जब इस प्रकार हो चुका, तब सुविद्या ने कहा कि - पिताजी