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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ९३ परन्तु तुमको मैं बताऊँ सो करो कि इस टाल में तो लाभ थोड़ा होता है और लकड़ी बेचने वाले टालवाले ही कहलाते हैं। तुम कुछ मिस्तरी रख लो और बड़े-बड़े, पेड़- साल, शीशम, आम, नीम आदि को मोल ले लेकर उनकी कुर्सी, मेज, संदूक आदि ऐसी ऐसी कारीगरी की चीजों बनवाओ और रुपया जितना चाहिये, कारखाने के लिए उधार ले लेवें। नदी के तिरवर्ती किसी बड़े वन से काट-काट कर अच्छी लकड़ी मँगवाओ, जिनकी ये वस्तुएँ सुन्दर बनने में आवें । ऐसा विचार एक साहूकार से दो हजार रुपया उधार लिये। इन रुपयों से उन्होंने लकड़ी मोल लेकर वे वस्तुएँ बनवाई, जो दुगुने - चौगुने दाम की बिकीं। उधर लकड़हारा माल को दुगुने मूल्य पर बेचकर और दूसरी नाना जाति की वस्तु लादकर लाया, जो हाथों हाथ दूने और चौगुने दाम में उसी वक्त बिक गईं, जिससे इनको खूब लाभ हुआ। जो रुपया लोगों का उधार लिया था, वह ब्याज समेत चूकता दे दिया और जो बचा, उसको अपने घर में रख लिया । : अब तो थोड़े ही दिन में दस-बीस हजार की पूँजी इनके घर में हो गई। दूसरे से भी उधार लेने की कुछ आवश्यकता न रही, पर सुविद्या ने सोचा कि अभी अपने घर के रुपयों से व्यवहार करना अच्छा नहीं है। एक बार और इसी प्रकार अपने पिता को भेज दूँ और जब अब के लाभ हो। तब उसके पीछे फिर उधार न लेंगे । ऐसा सोच कर एक-दो महीने पीछे फिर अपने पिता और गुमाश्ते को पहले की बराबर माल भरवा कर साहूकारों से लदवा दिया। अब तो सेठ साहूकारों में इनकी बड़ी साख (इज्जत) हो गई थी। सबने बे कहे सुने माल भर दिया। इधर इसने किसी ब्राह्मण के अच्छे कुल में अपने दोनों भाइयों के विवाह की सट्ट लगाई और
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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