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___ श्री गुणानुरागकुलकम् और उन को पढ़ाया करे। उनके संग अपने दोनों भाइयों (लकड़हारे के दो पुत्रों) को भी पढ़ा लिया और थोड़ा-सा लेखा-जोखा अपने पिता (लकड़हारे) को भी सिखा दिया। इसका ऐसा नाम नगर में हुआ कि भले घर की बहू-बेटियों के यहाँ भी यह जाने लगी और कुछ मासिक वेतन भी दो-चार बड़े-बड़े घरों से पाने लगी। सेठ-साहूकारों के घरों में जाने से इसकी प्रतीति और भरोसा बढ़ गया। यदि इसको १०० या ५० रुपये की आवश्यकता हो, तो मिलने लगे। ___ जब इसका ऐसा हाल हो गया, तब इसने दो-चार साहूकारों से कह सुनकर अपने नाम का माल उनके रुपयों से भरवा और उन्हीं से एक भरोसे का गुमाश्ता नौकर रखबा कर अपने पिता को उसके संग भेजा और कहा कि इसको जाकर दूसरे देशों में बेच लाओ
और जो कुछ वस्तु उन देशों में सस्ती हो, इसके पलटे में भरते लाना। यह कह उनको तो वहाँ रवाने किया और भाइयोंसे कहा कि अब तुम सेठ-साहूकार और भले मनुष्यों में बैठते - उठते हो, तो अब इस प्रकार रहना चाहिए कि कोई अपने मन में तुम से घृणा न करे
और पास बैठने और बैठाने में सकुचे नहीं, सो यह करना चाहिए कि, प्रथम तो रहने का घर उत्तम प्रकार का बनाना चाहिये, जिसमें किसी ऊँचे कुल की बहू-बेटी आवे, तो अच्छी तरह सभ्यता से बैठे उठे। इसलिये प्रथम किसी साहूकार की हवेली भाड़े पर ले लो, उनसे हमारी रीति भाँति भी अधिक प्रशस्य हो जावेगी। ऐसा विचार कर एक हवेली भाड़े पर लिवा ली और उसी में सब रहने लगे। दूसरी बात यह कि सदा से अपना धंधा लकड़ी का है। यद्यपि हम उत्तम कुलीन हैं और धंधा अधम है, तथापि उसे नहीं छोड़ना चाहिये,